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जैन धर्म : सार सन्देश या स्वयं मरे हुए पशु का मांस खाने में कोई हिंसा नहीं होती तो ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उस मांस में भी उस मांस पर आश्रित रहनेवाले अनेकों जीवों की हिंसा होती है। इस प्रकार स्वयं मारकर, दूसरों द्वारा मारे गये या अपने-आप मरे हुए जीवों का मांस चाहे पकाकर या बिना पकाये खाना हिंसा का ही कार्य माना जायेगा। जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है:
यतः (चूँकि) प्राणों के घात किये बिना मांस की उत्पत्ति नहीं होती है, अतः मांस-भक्षी पुरुष के अनिवार्य (निश्चय ही) हिंसा होती है। भावार्थ-मांस का भक्षण करनेवाला पुरुष भले ही अपने हाथ से किसी जीव को न मारे तथापि वह हिंसा के पाप का भागी होता ही है। 42
अपने-आप मरे हुए जीवों का मांस खाने से होनेवाली हिंसा का उल्लेख करते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है:
यद्यपि यह ठीक है कि कभी अपने आप से ही मरे हुए भैंस, बैल आदि पशुओं का मांस मिल जाता है। पर वहाँ भी, अर्थात् उस मांस के खाने में भी, उस मांस के आश्रित रहनेवाले उस मरे हुए पशु की जाति के अनेक सूक्ष्म जीवों का घात होने से हिंसा तो होती ही है।43
पकाये हुए या बिना पकाये हुए मांस को केवल खाना ही नहीं, बल्कि छूना भी हिंसा के पाप का दोषी बनाता है। जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है:
जो जीव कच्ची अथवा पकी हुई मांस की डली को खाता है, अथवा छूता है, वह पुरुष निरन्तर एकत्रित हुए अनेक जीव कोटियों (जीव समूह) के पिण्ड को मारता है। भावार्थ-मांस का खानेवाला तो पाप का भागी है ही, किन्तु जो मांस को उठाता-रखता है या उसका स्पर्श भी करता है, वह भी जीव हिंसा के पाप का भागी होता है, इसका कारण यह है कि मांस में जो तज्जातीय (जिस जीव का वह मांस है उस जाति के) सूक्ष्म जीव होते हैं, वे इतने कोमल होते हैं कि मनुष्य के स्पर्श करने मात्र से उनका मरण हो जाता है।