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जैन धर्म : सार सन्देश
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विष मिलाया हुआ भोजन खाकर अपने जीवन को सुरक्षित रखना चाहता है । ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है:
जो मूढ़ अधम धर्म की बुद्धि से जीवों को मारता है सो पाषाण (पत्थर) की शिलाओं (चट्टानों) पर बैठकर समुद्र को तैरने की इच्छा करता है, क्योंकि वह नियम से डूबेगा । जो पापी धर्म की बुद्धि से जीवघातरूपी पाप को करते हैं वे अपने जीवन की इच्छा से हालाहल विष को पीते हैं 140
धर्म वास्तव में पवित्रता प्रदान करनेवाला है । इसे मोक्ष का साधन माना जाता है। वे मनुष्य सचमुच भाग्यहीन हैं जो अन्धविश्वास के शिकार होकर धर्म के नाम पर हिंसा करके धर्म को कलंकित करते हैं और अपने अनमोल मनुष्य-जीवन को दुर्गति ओर ले जाते हैं ।
आज के युग में तकनीकी ज्ञान-विज्ञान का बहुत विकास हुआ है। इसलिए इस युग को एक विकसित युग माना जाता है । पर इस विकसित माने जानेवाले युग में भी हम धर्म, जाति और सम्प्रदाय की संकीर्णता से मुक्त नहीं हुए हैं। हमारे अन्दर सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्पर्द्धा, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष और परस्पर वैर-विरोध के भाव आज भी प्राय: पहले जैसे ही बने हुए हैं, जो कभी भी हिंसा और युद्ध के रूप में भड़क सकते हैं आज के युग का समाज पहले जैसा एक-दूसरे से अनजान और दूर नहीं रह गया है। इसलिए आज हम एक-दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। ऐसी स्थिति में आज के युग की हिंसा और युद्ध के परिणामों में जिस व्यापकता और विकरालता की सम्भावना है, उसकी पहले कभी किसी ने कल्पना भी न की होगी । इसलिए वर्तमान युग में जैन धर्म द्वारा बतायी गयी अहिंसा को अपनाना और हिंसा को त्यागना और भी अधिक आवश्यक हो गया है ।
पहले ज़माने की हिंसा और युद्ध की तुलना में आज की हिंसा और युद्ध से होनेवाले सर्वव्यापी संहार की ओर ध्यान दिलाकर हुकमचन्द भारिल्ल जैन धर्म के अहिंसा - सिद्धान्त की वर्तमान आवश्यकता को इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं: