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अहिंसा
फलस्वरूप हिंसक को सुख-शान्ति कैसे मिल सकती है ? दूसरों की हिंसा करना यों ही एक अनर्थ है । फिर धर्म के नाम पर हिंसा करना तो घोर अनर्थ है । ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है:
अपनी शान्ति के अर्थ अथवा देवपूजा के तथा यज्ञ के अर्थ जो मनुष्य जीवघात (जीवहिंसा) करते हैं वह घात भी जीवों को शीघ्र ही नरक में डालता है।
कुलक्रम से जो हिंसा चली आई है वह उस कुल को नाश करने के लिए ही कही गई है तथा विघ्न की शान्ति के अर्थ जो हिंसा की जाती है वह विघ्नसमूह को बुलाने के लिए ही है।
भावार्थ- कोई कहै कि हमारे कुल में देवी आदि का पूजन चला आता है, अतएव हम बकरे, भैंसों का घात करके देवी को चढ़ाते हैं और इसीसे कुलदेवी को सन्तुष्ट हुई मानते हैं तथा ऐसा करने से कुलदेवी कुल की वृद्धि करती है, इस प्रकार श्रद्धान करके जो बकरे आदि की हिंसा की जाती है वह कुलनाश के लिए ही होती है, कुलवृद्धि के लिए कदापि नहीं । तथा कोई-कोई अज्ञानी विघ्नशान्त्यर्थ हिंसा करते हैं और यज्ञ कराते हैं। उनको उलटा विघ्न ही होता है और उनका कभी कल्याण नहीं हो सकता है। सुख के अर्थ की हुई हिंसा दुःख की परिपाटी करती है, मंगलार्थ की हुई हिंसा अमङ्गल करती है तथा जीवनार्थ की हुई हिंसा मृत्यु को प्राप्त कराती है । इस बात को निश्चय जानना ।
जो अधम शास्त्रों का प्रमाण देकर जीवों का वध करना धर्म बताते हैं वे मृत्यु होने पर नरक में शूलीपर चढ़ाये जाते हैं ।
हिंसा को धर्म माननेवाले या ऐसा कहनेवाले अधर्मी हैं, क्योंकि जिस शास्त्र में जीववध धर्म कहा हो वह शास्त्र कदापि प्रमाणभूत नहीं कहा जा सकता। उसको जो अज्ञानी प्रमाण मानकर हिंसा करते हैं वे अवश्य ही नरक में पड़ते हैं । 39
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धर्म के नाम पर हिंसा कर अपना कल्याण चाहनेवाला मनुष्य उस अनाड़ी व्यक्ति के समान है जो पत्थर पर चढ़कर समुद्र के पार जाना चाहता है या