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________________ 126 जैन धर्म: सार सन्देश पहले कहा जा चुका है कि दया धर्म का मूल है। इसलिए जैन धर्म में दयास्वरूप अहिंसा को धर्म का लक्षण माना जाता है। इसके विपरीत हिंसा को अधर्म का लक्षण समझा जाता है। इसप्रकार धर्म और हिंसा एक दूसरे के विपरीत हैं। धर्म में हिंसा को कभी मिलाया नहीं जा सकता। फिर भी कुछ अज्ञानी और पाखण्डी लोग मनगढन्त शास्त्रों की रचना कर धर्म के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ाने या अन्य प्रकार से जीवहिंसा करने को उचित ठहराते हैं। जैन धर्म के अनुसार दयापूर्ण धर्म में निर्दयतापूर्ण हिंसा को मिलाना भारी अनर्थ है, जैसा कि ज्ञानार्णव में कहा गया है: आचार्य (शुभचन्द्राचार्य) महाराज आश्चर्य के साथ कहते हैं कि देखो! धर्म तो दयामयी जगत् में प्रसिद्ध है, परन्तु विषयकषाय (विषय-विकारों) से पीड़ित पाखण्डी हिंसा का उपदेश देनेवाले (यज्ञादिक में पशुहोमने तथा देवी आदि के लिए बलिदान करने आदि हिंसाविधान करनेवाले) शास्त्रों को रचकर जगत् के जीवों को बलात्कार नरकादिक में ले जाते हैं। यह बड़ा ही अनर्थ है। धर्म के नाम पर जीवों को मारनेवाले, मारे गये जीवों का मांस खानेवाले और इसप्रकार के उपदेशों को देनेवाले–ये सभी नरक के अधिकारी होते हैं। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है: जो मांस के खानेवाले हैं वे सातवें नरक के रौरवादि (नरकों) में प्रवेश करते हैं और वहीं पर जीवों को घात करनेवाले शिकारी आदिक भी पीड़ित होते हैं। भावार्थ-जो जीवघातक मांसभक्षी पापी हैं, वे नरक में ही जाते हैं और जो जीवघात को ही धर्म मानकरके उपदेश करते हैं वे अपने और परके-दोनों के घातक हैं; अतः वे भी नरक ही के पात्र हैं। 38 जिनका विवेक नष्ट हो गया है वे ही ऐसा सोच सकते हैं कि दूसरे जीवों की बलि चढ़ाने या उन्हें मारने से मारनेवाले का विघ्न टल जायेगा और उसे सुख-शान्ति प्राप्त हो जायेगी। दूसरों की हत्या करने या उन्हें दुःख देने के
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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