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अहिंसा
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हिंसा करनेवाले को अपने हिंसक कर्मों के फलस्वरूप जिस दुर्गति का सामना करना पड़ता है उसकी कल्पना से ही जी दहल जाता है। उसकी विकरालता (भयंकरता) का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। जीवहिंसा द्वारा मानव अपने को दानव (राक्षस) बना डालता है। इसलिए जीवहिंसक का मन कभी भी ध्यान, समाधि आदि अन्तर्मुखी अभ्यास में नहीं लग सकता। इसे समझाते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है:
जीवों के घात (हिंसा) करने से पापकर्म उपार्जन होता है। उसका जो फल अर्थात् दुःख नरकादिक गति में जीव भोगते हैं वह वचन के अगोचर है, अर्थात् वचन से कहने में नहीं आ सकता।
हृदय में क्षणभर भी स्थान पाई हुई यह हिंसा तप, यम, समाधि और ध्यानाध्ययनादि (ध्यान, अध्ययन आदि) कार्यों को निरंतर पीड़ा देती है। भावार्थ-क्रोधादि कषायरूप परिणाम (हिंसारूप परिणाम) किसी कारण से एकबार उत्पन्न हो जाते हैं तो उनका संस्कार (स्मरण) लगा रहता है। वह तप, यम, समाधि और ध्यानाध्ययनकार्यों में चित्त को नहीं ठहरने देता, इस कारण यह हिंसा महा अनर्थकारिणी है। __ जो पापी नर अपने और अन्य के सुख-दुःख व हित-अनहित को न विचार कर जीवों को मारता है वह मनुष्यजन्म में भी राक्षस है, क्योंकि मनुष्य होता तो अपना व पर का हिताहित विचारता।
जब हिंसक किसी जीव की हिंसा करता है तब वह भूल जाता है कि उस जीव की हिंसा करने में वह स्वयं अपनी भी हिंसा कर रहा है। दूसरे जीवों की हिंसा करने से पहले वह स्वयं ही अपने अन्दर राग, द्वेष, क्रोध आदि विकारों के उठने से अपनी हिंसा या आत्मघात करता है। इसलिए हिंसा का त्याग करने में ही आत्महित है। जिन-वाणी में स्पष्ट कहा गया है:
किसी अन्य जीव का वध स्वयं अपना ही वध है तथा अन्य जीवों की दया अपने पर ही दया है। अतएव हिंसा का विष कण्टक के समान परिहरण (त्याग) करना चाहिए।