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जैन धर्म : सार सन्देश
अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैर त्यागः। 32
अर्थात् अहिंसा में पूरी तरह दृढ़ हो जाने पर उस साधुजन के आस-पास सभी प्राणी वैरभाव का त्याग कर देते हैं
हिंसा की घोर निन्दा
ऊपर बताया जा चुका है कि अहिंसा धर्म का लक्षण है । इसके ठीक विपरीत हिंसा को अधर्म का लक्षण माना गया है । इसलिए जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। जैन ग्रन्थों में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में हिंसा को समस्त पापों का मूल, नरक का द्वार और घोर अनर्थ का कारण कहा गया है । उदाहरण के लिए, जैनधर्मामृत में कहा गया है:
श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च ।
अहिंसा लक्षणो धर्मस्तद्विपक्षश्च पातकम् ॥
सर्व शास्त्रों में और सर्व मतों में यही सुना जाता है कि धर्म का लक्षण अहिंसा ही है और हिंसा करना ही पाप है।
हिंसा ही दुर्गति का द्वार है, हिंसा ही पाप का समुद्र है, हिंसा ही घोर रौरव नरक है और हिंसा ही गहन अन्धकार है । 33
ज्ञानार्णव में भी कहा गया है:
यह हिंसा ही नरकरूपी घर में प्रवेश करने के लिए प्रतोली (मुख्य दरवाज़ा) है तथा जीवों को काटने के लिए कुठार (कुल्हाड़ा) और विदारने के लिए निर्दयरूपी शूली है। जो धर्मरूप वृक्ष उत्तम क्षमादिक उदार संयमों से बहुत काल से बढ़ाया जाता है वह इस हिंसारूप कुठार से क्षण मात्र में नष्ट हो जाता है ।
भावार्थ- जहाँ हिंसा होती है वहाँ धर्म का लेश भी नहीं रहता ।
संसार में जीवों के जो कुछ दुःख, शोक, भय का बीज कर्म है तथा दुर्भाग्यादिक हैं वे समस्त एकमात्र हिंसा से उत्पन्न हुए जानो। भावार्थ–समस्त पापकर्मों का मूल हिंसा ही है। 34