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जैन धर्म : सार सन्देश ____ मनुष्य-जाति अपनी विवेक-शक्ति के कारण ही पशुओं की जाति से भिन्न और उससे ऊँची मानी जाती है। इस विवेक-शक्ति की वृद्धि करुणा या दया-भाव (अहिंसा) द्वारा होती है। इसलिए करुणा-भाव या अहिंसा-भाव को बढ़ाना ही अपनी मनुष्यता का विकास करना है। करुणा और विवेक के इस सम्बन्ध की ओर ध्यान दिलाते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है:
पुरुषों के हृदय में जैसे-जैसे करुणाभाव स्थिरता को प्राप्त करता है तैसे-तैसे विवेकरूपी लक्ष्मी उससे परमप्रीति प्रकट करती रहती है। भावार्थ-करुणा (दया) विवेक को बढ़ाती है। 28
मनुष्य अपने विवेक द्वारा स्वयं ही विचार कर सकता है कि तनिक-सी पीड़ा होने पर उसे कितनी बेचैनी और दर्द महसूस होता है। तो फिर वह दूसरे जीवों की हिंसा करके अपने को विवेकशील मनुष्य कैसे कह सकता है? इसलिए मनुष्य को 'मनुष्य' कहलाने के लिए अहिंसक होना आवश्यक है। वास्तव में मनुष्य के लिए हिंसा बड़ा भारी अनर्थ है, जैसा कि ज्ञानार्णव में कहा गया है:
जो मनुष्य अपने शरीर में तिनका चुभने पर भी अपने को दुःखी हुआ मानता है वह निर्दय होकर पर (दूसरे) के शरीर पर शस्त्र कैसे चलाता है? यह बड़ा अनर्थ है।
जो मनुष्य अपने बल और अधिकार का दुरुपयोग कर दूसरों को मारता या कष्ट पहुँचाता है उसे अपनी निर्दयता का कठोर दण्ड अगले जीवन में अवश्य भोगना पड़ता है। जो दूसरों का भला नहीं करता वह अपना भला कैसे मना सकता है ? ज्ञानार्णव में बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा गया है:
जो बलवान् पुरुष इस लोक में निर्बल का पराभव (अनादर या विनाश) करता व सताता है वह परलोक में उससे अनन्तगुणा पराभव सहता है। अर्थात्-जो कोई बलवान् निर्बल को दुःख देता है तो उसका अनन्त गुणा दुःख वह स्वयम् अगले जन्म में भोगता है।