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अहिंसा
121 इसी प्रकार जैनधर्मामृत में भी अहिंसा की महिमा का गुणगान करते हुए इसे परम कल्याणकारी बताया गया है:
अहिंसा ही माता के समान सर्व प्राणियों का हित करनेवाली है और अहिंसा ही संसाररूप मरुस्थली में अमृत बहानेवाली नहर है। अहिंसा ही दुःखरूप दावाग्नि को शमन (शान्त) करने के लिए वर्षाकालीन मेघावली है और अहिंसा ही भव भ्रमणरूप रोग से पीडित प्राणियों के लिए परम औषधि है।
अतएव प्राणियों की हिंसा का त्याग कर उन्हें अभयदान दो, उनके साथ निर्दोष, निश्छल मित्रता करो और समस्त चर-अचर जीवलोक को अर्थात् त्रस और स्थावर प्राणियों को अपने सदृश देखो।
अहिंसा की श्रेष्ठता का कारण बताते हुए जैन धर्म में यह स्पष्ट किया गया है कि सबको अपना जीवन सबसे अधिक प्यारा होता है। अपनी सारी धन-सम्पत्ति और क़ीमती से क़ीमती वस्तु देकर भी हम अपने जीवन की रक्षा करना चाहते हैं। इसलिए अहिंसा अर्थात् जीव-दया और जीव-रक्षा के समान अन्य कोई धार्मिक कार्य नहीं हो सकता। ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है:
जो कोई किसी मनुष्य को मर जाने के बदले में नगर, पर्वत तथा सुवर्ण रत्न धन धान्यादि से भरी हुई समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी का दान करै तौ भी अपने जीवन को त्याग करने में उसकी इच्छा नहीं होगी। भावार्थ-मनुष्यों को जीवन इतना प्यारा है कि मरने के लिए जो कोई समस्त पृथ्वी का राज्य दे दे तो भी मरना नहीं चाहता। इस कारण एक जीव को बचाने में जो पुण्य होता है वह समस्त पृथ्वी के दान से भी अधिक होता है।
इस जीवलोक में (जगत् में) जीव रक्षा के अनुराग से मनुष्य समस्त कल्याणरूप पद को प्राप्त होते हैं। ऐसा कोई भी तीर्थंकर, देवेन्द्र, चक्रर्तित्वरूप कल्याणपद लोक में नहीं है जो दयावान नहीं पावें। अर्थात् अहिंसा (दया) सर्वोत्तम पद को देनेवाली है।