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________________ 120 जैन धर्म : सार सन्देश इसी भाव को व्यक्त करते हुए जिन-वाणी में भी कहा गया है: जिस प्रकार समस्त लोक में समस्त पर्वतों से ऊँचा मेरु पर्वत है उसी प्रकार समस्त शीलों और व्रतों में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ जानना चाहिए। अहिंसा ही समस्त आश्रमों का हृदय है, समस्त शास्त्रों का गर्भ अर्थात् उत्पत्ति-स्थान है तथा सभी व्रतों और गुणों का पिण्डरूप एकीकृत सारभूत है। अहिंसा के पालन से ही जीवों का प्रतिपालन होता है और इस सर्वश्रेष्ठ व्रत का पालन करनेवाला सच्चे आन्तरिक आनन्द का अनुभव करता है। अहिंसाव्रती ही उत्तम गति और मोक्ष का अधिकारी होता है। अहिंसा द्वारा प्राप्त होनेवाले अनेक उत्तम लाभों का उल्लेख करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है: अहिंसा तो जगत् की माता है, क्योंकि समस्त जीवों की प्रतिपालना करनेवाली है। अहिंसा ही आनन्द की सन्तति अर्थात् परिपाटी है। अहिंसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी (मोक्ष) है। जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं वे सब अहिंसा ही में हैं। यह अहिंसा ही मुक्ति प्रदान करती है तथा स्वर्ग की लक्ष्मी को देती है और अहिंसा ही आत्मा का हित करती है तथा समस्त कष्टरूप आपदाओं को नष्ट करती है। - तप, श्रुत (शास्त्र का ज्ञान), यम (महाव्रत), ज्ञान (बहुत जानना), ध्यान और दान करना तथा सत्य, शील, व्रतादिक जितने उत्तम कार्य हैं उन सबकी माता एक अहिंसा ही है। अहिंसा व्रत के पालन बिना उपर्युक्त गुणों में से एक भी नहीं होता। इस कारण अहिंसा ही समस्त धर्म कार्यों की उत्पन्न करनेवाली माता है। इस संसाररूप तीव्र भय से भयभीत होनेवाले जीवों को यह अहिंसा ही एक परम औषधि है, क्योंकि यह सबका भय दूर करती है तथा स्वर्ग जाने के लिए अहिंसा ही मार्ग में अतिशय व पुष्टिकारक पाथेयस्वरूप (भोजनादि की सामग्री) है।25
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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