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अहिंसा
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कठिन और वीरता का कार्य है, इसे साधारण व्यक्ति नहीं समझ सकते। ऐसी नासमझी से जो लोग उक्त प्रकार के महावीर पुरूषों को कायर कहने का साहस करते हैं, वे वीरता और धर्म का ही अपमान करते हैं। ...कायर वे हैं जो बलवान शत्रु का प्रतीकार करने में स्वयं असमर्थ होने पर या सामर्थ्य होने पर भी साहस के अभाव में डर के मारे मुँह छिपा कर बैठ जाते हैं और मन ही मन तो उसे कोसते हैं व द्वेष करते रहते हैं; किन्तु ऊपर से दिखावटी 'क्षमा क्षमा' का राग अलापते हैं। यह कायरता है और इसमें व हिंसा में नाम मात्र का ही अंतर है। 22
अत: अहिंसा कर्तव्य और अकर्तव्य में अन्तर करना सिखाती है और कर्तव्य के मार्ग पर चलना सिखाती है। जो व्यक्ति अहिंसा की शक्ति, मर्यादा और व्याख्या से परिचित हैं वे कभी भी अहिंसा की निन्दा नहीं कर सकते।
अहिंसा की महिमा अहिंसा के सम्बन्ध में यहाँ अब तक जो कुछ कहा गया है उससे इतना तो स्पष्ट है कि जैन धर्म में अहिंसा पर पूरी गम्भीरता से विचार किया गया है। जैन धर्म के अनुसार अहिंसा का क्षेत्र इतना व्यापक है कि इसमें प्रायः सभी अन्य व्रत और धार्मिक नियम समा जाते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अहिंसा ही धर्म का लक्षण है। यही सभी धार्मिक व्रतों और नियमों का मूल है। अहिंसा की महिमा बताते हुए ज्ञानार्णव में स्पष्ट कहा गया है: इस लोक में जैसे परमाणु से कोई छोटा व अल्प नहीं है और आकाश से कोई बड़ा नहीं है, इसी प्रकार अहिंसारूप धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं है। यह जगत्प्रसिद्ध लोकोक्ति है: 'अहिंसा परमो धर्मः हिंसा सर्वत्र गर्हिता', अर्थात् अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और हिंसा की सर्वत्र निन्दा होती है।
यह अहिंसा अकेली जीवों को सुख, कल्याण व अभ्युदय देती है; वह तप, स्वाध्याय और यमनियमादि नहीं दे सकते हैं, क्योंकि धर्म के समस्त अंगों में अहिंसा ही एक मात्र प्रधान है।23