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अहिंसा
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जब कोई आततायी या हिंसक पशु नगर में घुसकर अनेकों व्यक्तियों की हिंसा करता है, उस समय लोगों की रक्षा के भाव से कोई व्यक्ति उसका सामना करता है और इस पर-रक्षा के समय उसके द्वारा यदि
आक्रमण करनेवाला मारा जाता है, तो यद्यपि वहाँ एक आततायी की हिंसा हुई है, तथापि सैकड़ों निरपराध व्यक्तियों के प्राणों की भी रक्षा उसके मारे जाने से ही हुई है और इस प्रकार एक के मारने की अपेक्षा अनेकों की रक्षा का पुण्य विशाल है। इसीलिए कहा गया है कि कहीं पर की गई हिंसा अहिंसा के विपुल फल को देती है।
गृहस्थों को विरोधी हिंसा की अनुमति दिये जाने के कारण को समझावे हुए नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
सच तो यह है कि यदि गृहस्थ राज्यादि कार्यों को करते हुए अथवा गृहस्थी की ज़िम्मेदारी का भार सम्भालते हुए विरोधी हिंसा का बिल्कुल त्याग कर दें तो दुनियाँ में अंधेर मच जाये-आततायी लोग लूट, मार, हत्या, व्यभिचार, बलात्कार आदि करने में नि:शङ्क हो कमर कस कर जुट जायें और किसी भी गृहस्थ का धर्म, जान, माल, देश आदि ख़तरे से खाली न रहे। इसलिए गृहस्थों से अहिंसा का एकदेश (आंशिक) पालन ही हो सकता है और उसी के पालन करने की उन्हें प्ररेणा दी गई है।20
इस प्रकार गृहस्थ के लिए आवश्कतानुसार अहिंसा के पालन की एक अपनी मर्यादा है। संक्षिप्त रूप में इसका संकेत देते हुए हुकमचन्द भारिल्ल कहते हैं:
जहाँ गृहस्थ बिना प्रयोजन चींटी तक का बध नहीं करता है; वहाँ देश, समाज, घर-बार, माँ-बहिन, धर्म और धर्मायतन की रक्षा के लिए तलवार उठाने में भी संकोच नहीं करता।
इस प्रकार अपने भावों और इरादों को पवित्र रखते हुए तथा दयापूर्वक दूसरों की रक्षा का ध्यान रखते हुए गृहस्थ का सावधानी के साथ किया हुआ कार्य अहिंसा ही माना जाता है।