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जैन धर्म : सार सन्देश
(3) उद्योगी हिंसा वह है जो खेती-बारी करने, कल-कारखाने चलाने आदि रोजी-रोजगार के कामों को सावधानीपूर्वक करने में भी हो जाती है। (4) विरोधी हिंसा वह है जो अपने तथा अपने परिवार, समाज, देश आदि की दुष्टों, आततायियों आदि से रक्षा करने में अनिच्छापूर्वक की जाती है।
गृहस्थ को संकल्पी हिंसा का तो त्याग अवश्य कर देना चाहिए। पर बाक़ी तीन प्रकार की हिंसा का पूर्ण त्याग उसके लिए सम्भव नहीं है। इसलिए जैन धर्म में गृहस्थ के लिए अहिंसा महाव्रत (सभी अवस्थाओं में सभी प्रकार के जीवों की हिंसा के त्याग) के बदले अहिंसा अणुव्रत (परिस्थिति के अनुसार यथासम्भव हिंसा के त्याग) का विधान किया जाता है। खेती-बारी आदि कामों में लगे गृहस्थ के लिए स्थावर और एक इन्द्रियवाले पेड़-पौधों या वनस्पतियों की हिंसा से बच पाना सम्भव नहीं है। इसलिए गृहस्थ को शन्तिपूर्वक धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करते हुए अहिंसा अणुव्रत का पालन करना चाहिए। अर्थात् उन्हें संकल्पी हिंसा का पूर्ण त्याग करते हुए अपने इरादे से दो से पाँच इन्द्रियोंवाले त्रस (चलनेवाले) जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए और आवश्यकता के बिना वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीव की भी यथासम्भव रक्षा करने का ख़याल रखना चाहिए। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में स्पष्ट कहा गया है:
गृहस्थ से एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का त्याग नहीं हो सकता है, इसलिए यदि योग्य रीति से कार्य करते हुए एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है तो होओ, इसके अतिरिक्त व्यर्थ और असावधानी से कार्य करने में जो एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है उसका तो अवश्य ही त्याग होना चाहिये।
शान्तिपूर्वक धार्मिक जीवन व्यतीत करनेवाले गृहस्थ को न चाहते हुए भी आवश्यक परिस्थितियों में अपने और अपने परिवार या समाज की रक्षा के लिए विरोधी हिंसा करनी पड़ती है। उस विशेष परिस्थिति में हिंसा रक्षा के उद्देश्य से की जाती है। इसलिए जैन धर्म गृहस्थ के लिए इस हिंसा को उचित मानता है। इस विरोधी हिंसा का एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है: