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________________ अहिंसा 115 इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म के मूल सिद्धान्त के अनुसार सत्य, अचौर्य आदि सभी सद्गुण अहिंसा में समा जाते हैं। तभी तो अहिंसा को परम धर्म कहा जाता है। गृहस्थ और अहिंसा अक्सर यह प्रश्न उठाया जाता है कि क्या गृहस्थ-जीवन में रहते हुए मनुष्य अहिंसा के इतने ऊँचे आदर्श को निभा सकता है ? गृहस्थ को अपने और अपने परिवार के पालन-पोषण के लिए खेती, नौकरी आदि कोई न कोई रोज़गार करना ही पड़ता है। फिर चोरों, बदमाशों और लुटेरों से अपनी सुरक्षा के लिए भी कुछ उपाय करना ही होता है। ऐसी स्थिति में त्रस (चल) और स्थावर (अचल) जीवों से भरे इस संसार में किसी भी जीव को न मारने और उन्हें किसी तरह कष्ट न पहुँचाने के नियम को वह पूरी तरह कैसे निभा सकता है? गृहत्यागी साधुओं के लिए भी इसे पूरी तरह निभा पाना कठिन है। गृहस्थ के लिए तो यह प्रायः असम्भव ही है। ___ जैन धर्म अपने अहिंसा के मूल सिद्धान्त पर दृढ़ रहते हुए व्यावहारिक जीवन की कठिनाइयों पर सूक्ष्मता से विचार कर इस प्रश्न का उचित समाधान प्रस्तुत करता है। हम देख चुके हैं कि जैन धर्म में अपने आन्तरिक भावों और इरादों को पवित्र रखने तथा जीव-दया और जीव-रक्षा को अपना स्वाभाविक कर्तव्य समझने को ही अहिंसा का वास्तविक रूप माना जाता है। यदि गृहस्थ इस आन्तरिक पवित्रता के साथ सावधानीपूर्वक हिंसा से बचने का प्रयत्न करते हुए अपने कर्तव्य को निभाता है तो उसे अहिंसक ही माना जायेगा। जैन धर्म में यह स्पष्ट किया जाता है कि दूसरे जीवों की हिंसा चार प्रकार से होती है जिन्हें (1) संकल्पी (2) आरम्भी (3) उद्योगी और (4) विरोधी हिंसा कहते हैं। (1) संकल्पी हिंसा वह है जो संकल्प करके (इरादे से) की जाती है, जैसे किसी जीव को जान-बूझकर मारना या कष्ट पहुँचाना। (2) आरम्भी हिंसा वह है जो घर-गृहस्थी के कामों को करने में अनजाने हो जाती है, जैसे झाड़ देने, रसोई बनाने, घर की धुलाई-सफ़ाई आदि कामों को सावधानीपूर्वक करने पर भी कुछ जीवों को कष्ट हो जाता है या उनकी मृत्यु हो जाती है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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