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________________ 112 जैन धर्म : सार सन्देश प्राय: सभी भारतीय धर्मों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अचौर्य, अर्थात् चोरी नहीं करने), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (अनावश्यक संग्रह न करने) को धर्म के प्रमुख अंगों के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैन धर्म में इन्हें पंचमहाव्रत कहते हैं। इन पाँचों में अहिंसा को ही सबसे प्रमुख धर्म माना जाता है (अहिंसा परमो धर्मः), क्योंकि जैन धर्म में बताये गये अहिंसा के व्यापक अर्थ को ध्यान में रखने पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि सत्य, अचौर्य आदि सभी अन्य व्रत अहिंसा के ही अन्दर आ जाते हैं। ज्ञानार्णव में स्पष्ट रूप से कहा गया है: अहिंसा महाव्रत सत्य आदि अगले चार महाव्रतों का कारण है, क्योंकि सत्य, अचौर्य आदि बिना अहिंसा के नहीं हो सकते और शील आदि उत्तरगुणों का स्थान भी यह अहिंसा ही है; अर्थात् समस्त उत्तर (श्रेष्ठ) गुण भी अहिंसा महाव्रत पर आधारित हैं। 14 जैनधर्मामृत में भी ऐसा ही कहा गया है: यदि वास्तव में देखा जाये तो झूठ, चोरी आदि सभी पाप हिंसा के ही अन्तर्गत हैं। उनका पापरूप से पृथक् उपदेश तो मन्दबुद्धि लोगों को समझाने के लिए ही दिया गया है 15 इस अध्याय के प्रारम्भ में ही हम देख चुके हैं कि राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान आदि विकारों के उत्पन्न होने से आत्मा के स्वाभाविक गुणों का घात होता है, जिसे हिंसा कहते हैं। इन विकारों से ऊपर उठकर साम्यभाव में स्थित होने को अहिंसा कहते हैं। आन्तरिक हिंसा के अतिरिक्त बाहरी रूप से दूसरों को कष्ट पहुँचाना या मारना तो हिंसा है ही। इस दृष्टि से विचार करने पर यह आसानी से समझा जा सकता है कि झूठ, चोरी, कुशील (व्यभिचार) और परिग्रह (अनावश्यक संग्रह)-ये चारों ही रागादि से उत्पन्न होने के कारण हिंसा के ही अंग हैं। इसके विपरीत सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामक चारों व्रत अहिंसा के अंग हैं। यहाँ हम संक्षेप में यह दिखलाने की चेष्टा करेंगे कि किस प्रकार असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह आत्मा की पवित्रता
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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