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अहिंसा को भंग करते हैं और साथ ही दूसरों को भी कष्ट पहुँचाते हैं। इसलिए ये हिंसा के ही अंग हैं और इनका त्याग करना अहिंसा के पालन के लिए आवश्यक है।
अन्तर की पवित्रता से उत्पन्न यथार्थ वचन को ही सत्य कहते हैं। इसके विपरीत बोले गये वचन को असत्य कहते हैं। इसलिए झूठ, कठोर तथा निन्दापूर्ण वचन और अनावश्यक अनाप-शनाप बकना-ये सभी वचन के दोष हैं, जो वास्तव में असत्य के ही अन्दर आ जाते हैं। इस बात को सभी जानते हैं कि मानव-जगत् का सम्पूर्ण व्यवहार मुख्य रूप से वचनों के आधार पर ही चलता है। इसलिए वचन के दुरुपयोग से अपनी और दूसरों की हानि होती है। झूठ और निन्दा से अपनी अन्तरात्मा दूषित होती है और दूसरों को भी कष्ट होता है। कठोर वचन या तीखी बोली की चुभन तीर, तलवार या बन्दूक की गोली के आघात से भी अधिक समय तक मन को पीड़ित करती रहती है। इस प्रकार असत्य वचन आत्मघाती है और साथ ही परघाती भी। इसलिए असत्य को हिंसा और सत्य को अहिंसा का अंग माना जाता है।
व्यक्ति और समाज के लिए आन्तरिक पवित्रता के साथ-साथ यथार्थ और मधुर वचन की आवश्यकता पर जोर देते हुये नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
यह याद रखना चाहिये कि जब तक अन्तःकरण पवित्र न होगा तब तक वचनों में यथार्थता और मधुरता नहीं आ सकती और इनके आये बिना संसार में न तो व्यवहार ही ठीक चल सकता है और न शान्ति ही क़ायम हो सकती है। क्योंकि मनुष्य का पारस्परिक प्रत्येक कार्य और व्यवहार वचन के द्वारा प्रारम्भ होता है। ...इस भाँति जब कि समाज । की सामूहिक शान्ति भी असत्य भङ्ग कर डालता है और संसारी कार्य तक असत्य के द्वारा ठीक नहीं चल सकते तो इससे आत्मकल्याण और आत्मोन्नति का होना तो और भी असम्भव है। बल्कि आत्मा असद्वचनों द्वारा पतित और अशान्त ही होती है तथा यह आत्मपतन ही आत्मघात है, जो हिंसा का ही दूसरा नाम है।
इसी प्रकार चोरी करनेवाला अपनी नीच मनोवृत्ति और दुष्कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को तो दूषित करता ही है, साथ ही दूसरों की वस्तुओं को चुराकर उन्हें