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अहिंसा
111 जैसे सुख साधनों की अपने लिए इच्छा करते हो और जैसे अपने को दुःख में डालने की इच्छा नहीं रखते इसी प्रकार दूसरे प्राणियों के लिए भी दुःख की नहीं किन्तु सुख की इच्छा करो। बस जिनेन्द्र भगवान् का यही उपदेश है। 12
अहिंसा ही धर्म का लक्षण है और अहिंसा के लिए जीव-दया आवश्यक है। इसलिए प्राणीमात्र के प्रति दया-भाव रखना धर्म का मूल है। ज्ञानार्णव में सबके प्रति दया-भाव धारणकर सबसे मैत्री का भाव रखने और सबकी रक्षा करने का उपदेश देते हुए कहा गया है:
हे आत्मन! तू प्रमाद को छोड़कर भावों की शुद्धि के लिए जीवों की सन्तति को (समूह को) बन्धु (भाई, हित, मित्र) की दृष्टि से अवलोकन किया कर। अर्थात् प्राणीमात्र से शत्रुभाव न रखकर सबसे मित्रभाव रख और सबकी रक्षा में मन, वचन, कायादिक से प्रवृत्ति कर।
जिसमें दया नहीं है ऐसे शास्त्र तथा आचरण से क्या लाभ? क्योंकि ऐसे शास्त्र के व आचरण के अंगीकार मात्र ही से जीव दुर्गति को चले जाते हैं।
वही तो मत का सर्वस्व है और वही सिद्धान्त का रहस्य है जो जीवों के समूह की रक्षा के लिए है। एवम् वही भावशुद्धिपूर्वक दृढ़ व्रत है।
समस्त मतों के समस्त शास्त्रों में यही सुना जाता है कि अहिंसा लक्षण तो धर्म है (अहिंसा लक्षणो धर्मः) और इसका प्रतिपक्षी (विरोधी) हिंसा करना ही पाप है। इस सिद्धान्त से जो विपरीत वचन हो वह सब विषयाभिलाषी जिह्वालंपट जीवों के हैं। उन्हें दूर से ही तजने योग्य जानना चाहिये।
हे भव्य (मोक्षार्थी)! तू जीवों के लिए अभयदान दे तथा उनसे प्रशंसनीय मित्रता कर और समस्त त्रस (चल) तथा स्थावर (अचल) जीवों को अपने समान देख।3