________________
जैन धर्म : सार सन्देश
110 आज्ञा देता है तो इसका फल भी विशेष रूप से उस राजा को ही भोगना पड़ेगा। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी जीव की बुराई करने के प्रयत्न में लगा हो, पर संयोगवश उस जीव की बुराई के बदले भलाई हो जाये, तब भी बुराई करने का प्रयत्न करनेवाले व्यक्ति को बुराई का ही फल मिलेगा। इसके विपरीत यदि कोई वैद्य किसी रोगी के रोग को दूर करने के उद्देश्य से उसे पूरी सद्भावना के साथ दवा दे रहा हो, फिर भी रोगी की मृत्यु हो जाये, तो वैद्य को हिंसा का फल न मिलकर अहिंसा का ही फल मिलेगा।
इसी प्रकार यदि दो या दो से ज्यादा व्यक्ति मिलकर कोई हिंसा का कार्य करें तो उन्हें अपने-अपने राग, द्वेष, क्रोध, आदि आन्तरिक भावों की अधिकता या कमी के अनुसार ही हिंसा का अधिक या कम फल मिलेगा।
इसलिए मनुष्य का यह धर्म है कि वह अपने रागादि विकारों से ऊपर उठकर सभी जीवों को अपने समान समझे और यह ध्यान रखे कि जिस प्रकार हमें सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है उसी प्रकार दूसरे जीवों को भी सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है। इस प्रकार परमार्थ की साधना के लिए अहिंसा व्रत 'को ग्रहणकर जीव-दया और जीव-रक्षा का भाव अपनाना आवश्यक है। सभी प्राणियों को अपने समान समझकर हिंसा का त्याग करने का उपदेश करते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है:
अपने समान सर्व प्राणियों के सुख-दु:ख और इष्ट-अनिष्ट का चिंतवन करे और यतः (क्योंकि) हिंसा अपने लिए अनिष्ट और दुःखकारक है, अतः अन्य के लिए भी वह अनिष्ट और दुःखकारक होगी, ऐसा समझकर पर (दूसरे) की हिंसा नहीं करनी चाहिए।' जिन-वाणी में भी ऐसा ही उपदेश दिया गया है: जिस प्रकार तुझे दुःख प्रिय नहीं है उसी प्रकार अन्य जीवों को भी वह प्रिय नहीं है ऐसा जानो। इस समझदारी के साथ अन्य जीवों के प्रति वैसा ही हित भाव से व्यवहार करो जिस प्रकार तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे प्रति करें।