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अहिंसा
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जैन धर्म में हिंसा को सबसे बड़ा पाप माना गया है। आचारांग सूत्र में इससे बचे रहने के लिए यह प्रबल तर्क दिया गया है कि जिसे तू मारने योग्य, बाँधने योग्य या पीड़ा देने योग्य मानता है वह अन्य नहीं, तू ही है:
तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मण्णसि तुमंसि नाम सच्चेव जं अज्जावेयव्वंति मण्णसि तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वंति मण्णसि तुमंसि नाम सच्चेव जं परिधेतव्वंति मण्णसि तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयव्वंति मण्णसि' अर्थ-वह तू ही है जिसे तू हंतव्य (मारने योग्य) मानता है। वह तू ही है जिसे तू आज्ञापयितव्य (आज्ञा में रखने लायक) मानता है। वह तू ही है जिसे तू परितापयितव्य (परिताप या पीड़ा देने योग्य) मानता है। वह तू ही है जिसे तू परिग्रहीतव्य (दास बनाने हेतु परिग्रह या संग्रह करने योग्य) मानता है। वह तू ही है जिसे तू अपद्वावयितव्य (मारने . योग्य) मानता है।
इनका तात्पर्य यही है कि... जब तू किसी की हिंसा करना चाहता है तब हिंसा किसी अन्य की नहीं है, वह तेरी ही हिंसा है, क्योंकि पहले तेरी ही शुभवृत्ति की हिंसा होती है फिर अन्य की हिंसा होती है। अतः हिंसा एक प्रकार से स्व-हिंसा ही है।10।
वास्तव में मनुष्य अपने आन्तरिक हिंसात्मक और अहिंसात्मक भावों के कारण ही हिंसक और अहिंसक होता है। यही कारण है कि एक ही व्यक्ति के हिंसा करने पर अनेकों व्यक्ति हिंसा के फल को भोगने के भागी होते हैं। इसके विपरीत बाहरी तौर पर अनेकों व्यक्तियों द्वारा हिंसा के कार्य किये जाने पर भी एक ही व्यक्ति विशेष रूप से हिंसा के फल का भागी होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई एक व्यक्ति किसी को मारता है और बहुत-से लोग उसे अच्छा कहते और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं तो वे सभी उस हिंसा के फल के भागी होते हैं। दूसरी ओर यदि एक अत्याचारी राजा अपने अनेकों सिपाहियों को किसी दूसरे राज्य में लूट-मार करने और निरपराध लोगों को मारने की