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जैन धर्म : सार सन्देश जाती है। जिनकी हिंसा का रोकना शक्य (सम्भव) है उसे प्रयत्नपूर्वक रोकनेवाले संयत के हिंसा कैसे हो सकती है?
वास्तव में रागादि विकारों से युक्त प्रमादी (लापरवाह) जीव अपने अपवित्र मनोभावों के कारण सदा ही हिंसा का दोषी माना जाता है जबकि रागादि विकारों से मुक्त अप्रमादी (सावधान) मनुष्य में हिंसा का दोष नहीं लगने पाता। इसे स्पष्ट करते हुए ज्ञानार्णव में कहा गया है:
जीवों के मरते व जीते प्रमादी (असावधान) पुरुषों को तो निरन्तर ही हिंसा का पापबन्ध होता ही रहता है। और जो संवरसहित अप्रमादी (रागादि विकारों से बचे रहनेवाले सावधान साधक) हैं उनको जीवों की हिंसा होते हुए भी हिंसारूप पाप का बंध नहीं होता। भावार्थ-कर्मबन्ध होने में प्रधान कारण आत्मा के परिणाम (आन्तरिक भाव) हैं; इस कारण जो प्रमादसहित (असावधानी के साथ) बिना यत्न के प्रवर्त्तते (व्यवहार करते) हैं उनको तो जीव मरे अथवा न मरे किन्तु कर्मबन्ध होता ही है, और जो प्रमादरहित यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं उनके दैवयोग से जीव मरै तौ भी कर्मबन्ध नहीं होता है।'
अहिंसा के स्वरूप को भली-भाँति समझकर अपना कल्याण चाहनेवाले जीव को सभी प्रकार की हिंसा से दूर रहना चाहिए। हिंसा तीन प्रकार की बतायी गयी है: कृत (स्वयं की गयी), कारित (दूसरों से करायी गयी) और अनुमोदित (समर्थित)। इनमें से किसी प्रकार की हिंसा करना अपने प्रति हिंसा या आत्मघात करना है। जिन-वाणी में इन तीनों प्रकार की हिंसा से बचने का उपदेश इन शब्दों में दिया गया है:
इस लोक में जितने प्राणी हैं चाहे वे त्रस (चल) हों अथवा स्थावर (अचल), उन्हें जान-बूझकर अथवा बिना जाने प्रमादवश न स्वयं मारे
और न उनका दूसरों द्वारा घात करावे। चाहे कोई स्वयं प्राण-घात करे अथवा अन्य जनों द्वारा करावे या हनन करनेवाले का अनुमोदन करे वह यथार्थतः अपने ही प्रति वैर भाव की वृद्धि करता है।