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अहिंसा
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कार्य (द्रव्य हिंसा) न किया हो जबकि राग-द्वेष आदि से मुक्त सज्जन पुरुष से हिंसा का कार्य हो जाने पर भी वे हिंसा के फल के अधिकारी नहीं होते। इसे स्पष्ट करते हुये पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा गया है:
जिसके परिणाम (आन्तरिक भाव) हिंसारूप (राग-द्वेष, क्रोध आदि विकार रूप) हुए, चाहे वे (परिणाम) हिंसा का कोई कार्य न कर सके हों तो भी वह जीव हिंसा के फल को भोगेगा और जिस जीव के शरीर से किसी कारण हिंसा तो हो गई परन्तु परिणामों (आन्तरिक भावों) में हिंसारूपकता (हिंसा की भावना) नहीं आई तो वह हिंसा करने का भागी कदापि नहीं होगा।
पर इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि साधारण बोलचाल की भाषा में जिसे हिंसा कहते हैं-जैसे किसी को मारना या दुःख देना-वह हिंसा नहीं है। वह तो हिंसा है ही, क्योंकि इस प्रकार जान-बूझकर किये गये हिंसक कार्य आन्तरिक हिंसात्मक भावों पर आधारित होते ही हैं। यहाँ केवल यह समझाने की चेष्टा की गयी है कि आन्तरिक हिंसात्मक भाव (भाव हिंसा) ही बाहरी हिंसा का मूल कारण है, इसलिए इस मूल कारण के बिना केवल जीवघात के आधार पर किसी को हिंसक नहीं कहा जा सकता।
यदि केवल जीवघात के आधार पर किसी को हिंसक मान लिया जाये तो संसार में कोई भी अहिंसक नहीं रह सकता। इसे राजवार्तिक में प्रश्न और उत्तर के रूप में इस प्रकार समझाया गया है:
प्रश्न-जल में, स्थल में और आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु हैं। इस जन्तुमय जगत् में साधक अहिंसक कैसे रह सकता है? उत्तर-इस शंका को यहाँ अवकाश नहीं है, क्योंकि ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त साधक को मात्र प्राण वियोग से हिंसा नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जीव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकार के हैं। उनमें जो सूक्ष्म हैं वे तो न किसी से रुकते हैं, और न किसी को रोकते हैं, अत: उनकी तो हिंसा होती नहीं है। जो स्थूल जीव हैं उनकी यथा शक्ति रक्षा की