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________________ 106 जैन धर्म: सार सन्देश भावार्थ-जो प्रमादी जीव कषायों (राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान आदि) के वश होकर असावधानीपूर्वक गमनादि क्रिया करता है उस समय चाहे जीव मरे अथवा न मरे, परन्तु वह हिंसा के दोष का भागी तो अवश्य ही होता है। अहिंसा के पालन के लिए आन्तरिक शुद्धता के साथ अप्रमत्त (सावधान) होकर कार्य करना अत्यन्त आवश्यक है। जो प्रमत्त (असावधान या लापरवाह) होकर कार्य करता हुआ जीव का घात करता है वह अवश्य ही हिंसा का दोषी होता है, क्योंकि "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं" (लापरवाही या असावधानी से प्राणों का घात करना) हिंसा का लक्षण कहा गया है। __इस प्रकार जैन धर्म में हिंसा और अहिंसा का विचार करते समय जीव के आन्तरिक भाव पर विशेष ध्यान रखा जाता है। __ आन्तरिक अहिंसा की प्रमुखता को समझने के लिए जैन धर्म में बताये गये हिंसा के दो भेदों को ध्यान में रखना आवश्यक है। पहले भेद को भाव हिंसा और दूसरे भेद को द्रव्य हिंसा कहते हैं । राग-द्वेष, काम, क्रोध मान आदि भावों के उत्पन्न होने से आत्मा की शुद्धता का घात होना भाव हिंसा है और इसके फलस्वरूप अपने और पराये जीवों का घात होना द्रव्य हिंसा है। स्पष्ट है कि जीव के अन्दर पहले हिंसा का भाव उत्पन्न होता है, फिर वह जीव उस भाव को बाहरी कार्य का रूप दे सके या न दे सके। इस प्रकार अपने अन्दर उत्पन्न हिंसा के भाव द्वारा जीव पहले अपना आत्मघात करता है, फिर बाद में वह अन्य जीवों की हिंसा करे या न करे। जैनधर्मामृत में इसे बड़े ही स्पष्ट रूप से कहा गया है: आत्मा कषाय (राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान आदि) से युक्त होकर पहले अपने-आपके द्वारा अपना ही घात करती है, फिर भले ही पीछे अन्य जीवों की हिंसा होवे अथवा न होवे' यही कारण है कि जीव के अन्दर हिंसा का भाव उत्पन्न होते ही वह हिंसा का फल भोगने का अधिकारी बन जाता है, भले ही उसने हिंसा का कोई बाहरी
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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