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________________ अहिंसा 105 आन्तरिक अहिंसा ही प्रमुख अहिंसा मानी जाती है। यदि जीव अपने अन्तर से राग, द्वेष और मोह को दूर कर साम्यभाव में स्थित हो जाये और सावधानी के साथ संसार में अपना कार्य करता रहे तो उससे अनजाने, चलते-फिरते या सांसारिक काम-काज करते हुए किसी जीव की हिंसा हो जाने पर भी उसे हिंसक नहीं कहा जाता। उसके चित्त में रागादि विकारों के उत्पन्न न होने के कारण वह सदा अहिंसक ही बना रहता है। वास्तव में रागादि विकारों का उत्पन्न न होना ही अहिंसा है। पुरुषार्थसिद्धयुपायं में स्पष्ट कहा गया है: अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥' अर्थात् आत्मा में रागादि भावों का प्रकट नहीं होना अहिंसा है और उन रागादिभावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है। बस इतना मात्र ही जैन सिद्धान्त का संक्षिप्त सार या रहस्य है। यही कारण है कि रागादि विकारों से मुक्त और साम्यभाव में स्थित सन्तजनों के चलते-फिरते किसी जीव के पीड़ित होने या मर जाने पर भी उन्हें (सन्तों को) हिंसा का दोषी नहीं माना जाता। इसे स्पष्ट करते हुए जैनधर्मामृत में कहा गया है: योग्य आचरण करनेवाले सन्त पुरुषों के रागादि आवेश के बिना केवल प्राणों के घात से हिंसा कदाचित् भी नहीं होती है। भावार्थ-यदि किसी सज्जन पुरुष के सावधान होकर गमनादि करने में (चलने-फिरने आदि में) उसके शरीर-सम्बन्ध से कोई जीव पीड़ित हो जाये, या मर जाये, तो उसे हिंसा का दोष कदापि नहीं लगता, क्योंकि उसके परिणाम (आन्तरिक भाव) राग-द्वेष आदि कषाय (विकार) रूप नहीं हैं। रागादि भावों के वश में प्रवृत्त होने पर अयत्नाचाररूप प्रमाद (असावधानी की) अवस्था में जीव मरे, अथवा नहीं मरे, किन्तु हिंसा तो निश्चयतः आगे ही दौड़ती है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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