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अहिंसा
अहिंसा का स्वरूप यह तो स्पष्ट ही है कि अहिंसा' शब्द का अर्थ है हिंसा न करना। हिंसा किसी जीव की ही की जा सकती है। इसलिए साधारण बोलचाल की भाषा में किसी दूसरे जीव को न मारने या उसका घात या वध न करने को अहिंसा कहा जाता है। पर जैन धर्म में अहिंसा को व्यापक अर्थ में ग्रहण किया जाता है। इसके अनुसार अहिंसा का अर्थ जीवों का केवल वध न करना ही नहीं है, बल्कि किसी भी जीव को मन से वचन से या काय से कष्ट या पीड़ा न पहुँचाना या उसका दिल न दुखाना भी अहिंसा के अन्दर शामिल है। - इसके अतिरिक्त अहिंसा का सम्बन्ध साधारणतः केवल दूसरे जीवों से जोड़ा जाता है, जैसे-दूसरे जीवों को न मारना या न सताना। पर जैन धर्म बतलाता है कि हिंसा स्वयं अपने जीव की भी होती है। साधारणतया अपने जीव की हिंसा का अर्थ विष खाकर या अन्य किसी प्रकार से आत्महत्या करना माना जाता है। पर आत्महिंसा का वास्तविक अर्थ अपने अन्दर राग, द्वेष या मोह का उत्पन्न होना है, जिससे हमारा वास्तविक आत्मघात होता है। इसलिए जैन धर्म के अनुसार आत्मा में राग, द्वेषादि को उत्पन्न न होने देना ही वास्तविक अहिंसा है।
इस प्रकार अहिंसा का क्षेत्र बाहरी और भीतरी (आन्तरिक)-दोनों ही है। चूँकि आन्तरिक अहिंसा बाहरी अहिंसा का मूल है, इसलिए जैन धर्म में
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