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जैन धर्मः सार सन्देश परिवर्तन लाने के लिए जैन धर्म में बारह अनुप्रेक्षाओं और चार ध्यान को स्थिर बनानेवाली भावनाओं का अभ्यास बताया गया है, जिन पर हम अध्याय 8 में विचार करेंगे । फिर मन को नियन्त्रण में लाने और ध्यान का अभ्यास करने के सम्बन्ध में हम नौवें अध्याय में विस्तारपूर्वक विचार करेंगे। ध्यान द्वारा सभी संचित कर्मों का नाश होता है और जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कर्म ही जीव के बन्धन का कारण है। इसलिए कर्म-बन्धन के कारणों का अभाव हो जाने पर तथा सभी संचित कर्मों के नष्ट हो जाने पर जीव बन्धनरहित होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, जैसा कि तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में कहा गया है:
बन्धहेत्वभावनिर्जराम्यां कृत्सनकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः।40 अर्थ-बन्धन के कारणों का अभाव हो जाना और निर्जरा द्वारा सभी (संचित) कर्मों का विनाश हो जाना ही मोक्ष है। ___ साधु जन कर्म-बन्धन के बीज से रहित होकर अरहन्त केवली (केवलज्ञान या सर्वज्ञता से युक्त) बन जाते हैं और निर्वाण-प्राप्ति के पूर्व जीवों को उनके हित के लिए मोक्ष-मार्ग का उपदेश देते हैं, जैसा कि जैनधमामृत में कहा गया है:
उस अरहन्त अवस्था में रहते हुए वे सर्व देशों में विहार कर और भव्य (मोक्षार्थी) जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अन्त में योग-निरोध कर तथा शेष चार अघातिया कर्मों का भी क्षय कर सर्व कर्म से रहित होकर वे अरहन्त परमेष्ठी निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार ईंधन रूप नवीन उपादान कारण से रहित और पूर्व-संचित ईंधन को जलाकर भस्म कर देनेवाली अग्नि शान्त हो जाती है, उसी प्रकार कर्मरूप ईंधन को जलाकर यह आत्मा भी परम शान्ति को प्राप्त हो जाती है।
मोक्ष-प्राप्त आत्मा संसार से सदा के लिए छुटकारा पाकर सबसे ऊपर के लोक में चली जाती है, जहाँ वह अनन्त गुणों से युक्त होकर अनन्तकाल तक