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जीव, बन्धन और मोक्ष का पालन करते हुए आन्तरिक या अन्तर्मुखी साधना में तत्परतापूर्वक लगता है, तभी उसे सम्यक् चारित्र का वास्तविक फल प्राप्त होता है; इसे चाहे आत्मा के सच्चे स्वरूप का अनुभव कहें, सच्चा आत्मज्ञान कहें, सम्यक् चारित्र की परिणति कहें या मोक्ष की प्राप्ति कहें।
यों तो जैन धर्म में सदाचार के बहुत से नियम बताये गये हैं, पर उनमें अहिंसा, सत्य अचौर्य (चोरी नहीं करना), शील (ब्रह्मचर्य) और अपरिग्रह (अनावश्यक संचय न करना) ही प्रमुख हैं। इन्हें पंचव्रत कहा जाता है। इन व्रतों का पूरी कठोरता के साथ पालन करना संन्यासियों के लिए आवश्यक है। उनके इन व्रतों को पंच महाव्रत कहा जाता है। पर गृहस्थों के लिए इन व्रतों में कुछ ढील दी गयी है। उन्हें पंचअणुव्रत कहा जाता है। जैन धर्म में अहिंसा को परम धर्म या सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है, क्योंकि इसे ठीक तरह से पालन करने पर शेष चारों व्रत इसके अन्दर ही आ जाते हैं। 'अहिंसा' नामक अगले अध्याय में इस पर विस्तारपूर्वक विचार किया जायेगा।
कुछ लोग पाप कर्म को मिटाने के लिए पुण्य कर्म करते हैं। पर पुण्य कर्म द्वारा पाप कर्म को मिटाया नहीं जा सकता। शुभ फल की इच्छा रखकर कर्म करने से उस कर्म का फल अवश्य मिलता है, पर पुण्य कर्म पाप कर्म को नहीं काटता। इसलिए जैन धर्म में इच्छारहित होकर अपने उचित दायित्व को निभाते हुए सम्यक् चारित्र के नियमों का पालन करने का उपदेश दिया गया है। इच्छामुक्त होने के लिए ही जैन धर्म में तप का विधान किया गया है। तप का अर्थ ही है इच्छा को रोकना। इच्छा को रोकने के लिए राग-द्वेष से ऊपर उठना और कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) से बचे रहना आवश्यक है। इन्द्रियों और मन के नियन्त्रण के बिना इन मनोविकारों पर विजय पाना सम्भव नहीं है। इसलिए सदाचार के नियमों का पालन करते हुए इन्द्रियों और मन के नियन्त्रण द्वारा धीरे-धीरे मोह और ममत्व का त्याग कर अपने को समत्व भाव में स्थिर करना चाहिए। ये सभी चारित्र के ही अंग हैं।
इस प्रकार अपने आचार-विचार और दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना और संयम-नियमपूर्वक अन्तर्मुखी साधना (ध्यान) द्वारा कर्मों को समूल नष्ट करना ही सम्यक्चारित्र का लक्ष्य है। साधक के दृष्टिकोण और विचारधारा में