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________________ 100 जैन धर्म : सार सन्देश सकल कषायरहित जो उदासीन भाव उसी का नाम चारित्र है।” यदि कोई व्यक्ति सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना अपनी इच्छानुसार या किसी अन्ध-परम्परा के अनुसार कार्य करता है, तो उसे लाभ के बदले हानि हो सकती है। इसीलिए आदिपुराण में हमें सावधान करते हुए कहा गया है: सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी (कार्य में सिद्धि दिलानेवाला) नहीं होता, किन्तु जिस प्रकार अन्धे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से शून्य पुरुष का चरित्र भी उसके पतन अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमण का कारण होता है। 38 कुछ लोग शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर अपनी मान-प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए दूसरों को प्रवचन सुनाते फिरते हैं या अपने शास्त्र-ज्ञान को अपने आर्थिक लाभ का साधन बना लेते हैं। पर ज्ञान का उद्देश्य स्वयं उसपर अमल करना और अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना है, न कि मान-बड़ाई या आर्थिक लाभ प्राप्त करना। इस सम्बन्ध में कानजी स्वामी कहते हैं: अज्ञानी शास्त्र पढ़ लेता है, किन्तु यह नहीं जानता कि उनका क्या प्रयोजन है। शास्त्राभ्यास करके अपने में स्थिर होना शास्त्रों का प्रयोजन है; उसे सिद्ध न करे और दूसरों को सुनाने का अभिप्राय हो, तो वह मिथ्यादृष्टि है। ...क्या बहुत से लोग मानने लगें तो अपने को लाभ है? और कोई न माने तो हानि है ? नहीं, ऐसा नहीं है। ...ज्ञानाभ्यास तो अपने लिए किया जाता है; उसका निमित्त पाकर पर का भला होना हो, तो होता है। शास्त्र का ज्ञानी होना सरल है, पर उसके अनुसार आचरण करना कठिन है। केवल शास्त्र का ज्ञान प्राप्त कर लेने और उसका दिखावा करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। हमें कथनी को छोड़ करनी करने की आवश्यकता होती है। शास्त्र और गुरु के बताये ज्ञान के अनुसार जब साधक सदाचार के नियमों
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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