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________________ जीव, बन्धन और मोक्ष 99 ज्ञान ही तो संसाररूपी शत्रु के नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण खड्ग है और ज्ञान ही समस्त तत्त्वों को प्रकाशित करने के लिए तीसरा नेत्र है। 33 अज्ञान के कारण ही जीव राग-द्वेष, मोह-माया आदि विकारों का शिकार होकर बुरे कर्म करता है और कर्म-बन्धन में पड़कर जन्म-जन्मान्तर में दुःख भोगता रहता है। दुःखों के मूल कारण अज्ञान का विनाश सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। 3. सम्यक् चारित्र सच्चे विश्वास और सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर लेने के बाद उनके अनुसार जीवन को ढालना ही सम्यक् चारित्र है। ऐसा करने पर ही जीवन के वास्तविक उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार ज्ञान के अनुरूप आचरण और साधना को अपनाना ही सम्यक् चारित्र है। सम्यक् चारित्र जन्म-जन्मान्तर से इकट्ठे किये हुए कर्मों के भण्डार को नष्ट कर देता है। यदि सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है, तो सम्यक् चारित्र उसकी परिणति है। द्रव्यसंग्रह के अनुसार अहित कार्यों का त्याग करना और हित कार्यों का आचरण करना ही सम्यक् चारित्र है। इस प्रकार के आचरण के लिए समत्व-भाव को प्राप्त करना आवश्यक होता है। इसी बात को ध्यान में रखकर जैनधर्मामृत में सम्यक् चारित्र की निम्नलिखित परिभाषा दी गयी है: समस्त पाप क्रियाओं को छोड़कर और पर पदार्थों में राग-द्वेष न करके उदासीन या माध्यस्थ्यभाव अंगीकार करने को चारित्र कहते हैं। . समत्व भाव या माध्यस्थ्य भाव तब तक नहीं आ सकता जब तक साधक क्रोध, मान, माया लोभ आदि (कषाय) से ऊपर न उठ जाय। इसीलिए मोक्षमार्ग प्रकाशक में सम्यक् चारित्र को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: निश्चय से नि:कषाय भाव है, वही सच्चा चरित्र है। सम्यक् चारित्र की अन्तिम दो परिभाषाओं को समेटते हुए हुकमचन्द भारिल्ल अपना विचार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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