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मोक्षमार्ग की पूर्णता पूर्णसुख का उपाय/साधन बताया है। _ज्ञान की महिमा से सभी सुपरिचित हैं। जीवन के लौकिक क्षेत्र में भी ज्ञान ही महत्त्वपूर्ण है। घंटों शारीरिक श्रम करनेवाले मजदूर को मिलनेवाली मजदूरी से मात्र कुछ ही घंटे बौद्धिक कार्य करनेवाले इंजीनियर अथवा डॉक्टर को आर्थिक लाभ बहुत अधिक होता है। मनुष्य जीवन में भी ज्ञान की अधिकता से मनुष्य को महान व ज्ञान की हीनता से हीन माना जाता है।
इसीप्रकार पारलौकिक क्षेत्र में भी ज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
श्रद्धा सदैव ज्ञान का ही अनुसरण करती है, प्राथमिक अवस्था में ज्ञान के माध्यम से ही श्रद्धा में सामान्यरूप से सम्यक्पना आता है तथा चारित्र अर्थात् आचरण के सम्यक्पने का कारण भी ज्ञान ही है; इसीलिए तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम सूत्र में ज्ञान को सम्यग्दर्शन वसम्यक्चारित्र के बीच में रखा है, ज्ञान मध्य दीपक है। .
वास्तव में ज्ञान सदैव (जानन क्रियारूप) यथार्थ अर्थात् निर्मल ही रहता है, कभी भी मलिन नहीं होता; किन्तु श्रद्धा और चारित्र ही मलिन-निर्मल होते हैं, इसीकारण मिथ्यादृष्टि के ज्ञान को भी धवला में मंगल कहा है। __ यदि इस ज्ञान के द्वारा जानी गई वस्तु में किंचित्मात्र भी संशय, विपर्यय या अनध्यवसायरूप या हीनाधिकरूप जानपना हो तो उसे भी मिथ्याज्ञान कहते हैं; तथापि जानपना है - सो ज्ञान का स्वाभाविक
कार्य है - यही ज्ञान का निर्मलपना है। ... अनादि से ही इस जीव का ज्ञान मोह-राग-द्वेषभावों के सन्मुख हुआ वर्त रहा है, उनमें ही अपनापन स्थापित किये हुए जान रहा है। जब कोई आत्मज्ञानी की देशना इसे मिल जाये तो इसका ज्ञान उपयोग अपने शक्तियों के पिण्डजीवत्वरूप पारिणामिक भाव के सन्मुख हो। १. 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र-१ २. धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३८, ३९