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भूमिका
मिथ्यादृष्टि को सम्यग्दृष्टि होने के लिए अथवा संसारमार्गी को मोक्षमार्गी होने के लिए ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई साधन ही नहीं है।
आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार गाथा २०५ में लिखते हैं - ___“णाणगुणेण विहीणा एदं तु पदं बहु वि ण लहंते।
तं गिण्ह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं॥ अर्थ - ज्ञान गुण (आत्मानुभव) से रहित बहुत से लोग अनेक प्रकार के कर्म (क्रियाकाण्ड) करते हुए भी इस ज्ञानस्वरूप पद (आत्मा) को प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए हे भव्य ! यदि तुम कर्मों से सर्वथा मुक्ति चाहते हो तो इस नियत ज्ञान को ग्रहण करो।" - इसी विषय का समर्थन आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश 60 में भी किया है
____(मन्दाक्रान्ता) "ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था। ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदव्युदासः॥ ज्ञानादेव स्वरसविकसन्नित्यचैतन्यधातोः।
क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिंदती कर्तृभावम्॥ अर्थ - गर्म पानी में अग्नि की उष्णता और पानी की शीतलता का भेद, ज्ञान से ही प्रगट होता है और नमक के स्वादभेद का निरसन (निराकरण, अस्वीकार, उपेक्षा) ज्ञान से ही होता है। (अर्थात् ज्ञान से ही व्यंजनगत नमक का सामान्य स्वाद उभर आता है और उसका स्वादविशेष निरस्त होता है।) इसीप्रकार निजरस से विकसित होती हुई नित्य चैतन्यधातु और क्रोधादि भावों का परस्पर भेद भी ज्ञान ही जानता है और क्रोधादिक के कर्तृत्व (कर्तापने के भाव) को भेदता हुआ ज्ञान ही प्रगट होता है।"
ज्ञान तथा यथार्थ श्रद्धान के सम्बन्ध में पण्डित टोडरमलजी का कथन भी अति महत्त्वपूर्ण है। इसलिए उसे हम आगे दे रहे हैं -
१. “यहाँ फिर प्रश्न है कि-ज्ञान होने पर श्रद्धान होता है, इसलिए पहले मिथ्याज्ञान कहो बाद में मिथ्यादर्शन कहो?