SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्ज्ञान की पूर्णता वास्तविक स्वरूप तो यह है कि ज्ञान गुण भी अपनी क्षणिक उपादानगत योग्यता से सम्यक्रूप परिणत होता है, और श्रद्धा गुण की पर्याय भी अपने ही कारण से उस समय सम्यक्रूप ही रहती है। एक गुण या एक गुण की पर्याय, दूसरे गुण अथवा दूसरे गुण की पर्याय का कार्य करती है - ऐसा वस्तुस्वरूप त्रिकाल में नहीं है। दो पर्यायों में परस्पर एक-दूसरे के साथ अनुकूलता का जो ज्ञान होता है, उसे ही निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध कहते हैं। इसी को कालप्रत्यासत्ति भी कहते हैं । दो द्रव्यों के, दो गुणों के, दो पर्यायों का काल एक ही होना, उसे कालप्रत्यासत्ति (काल की नजदीकता अथवा उपस्थिति, दोनों पर्यायों का काल एक ही होना) कहते हैं । यहाँ इस प्रकरण में दो द्रव्यों की बात नहीं है; अपितु एक ही जीव द्रव्य के श्रद्धा एवं ज्ञान गुण की पर्याय की बात है । दो गुणों की एक • समय में होनेवाली दो पर्यायों की बात है । 63 यहाँ वैसे तो एक श्रद्धा गुण की सम्यक्त्वरूप पर्याय और उसी समय उसी जीव द्रव्य के अन्य अनन्त गुणों में होनेवाली पर्यायों की चर्चा अपेक्षित है। श्रद्धा गुण की सम्यक्त्व पर्याय होते ही उसीसमय ज्ञानादि अन्य गुणों का भी सम्यक् परिणमन अपने-अपने कारण से अर्थात् स्वतंत्ररूप से होता है। इसी कारण सम्यक्त्व के निमित्त से अन्य अनन्त गुणों के पर्याय में भी सम्यक्पना आ जाता है - ऐसा व्यवहार से कथन होता है। ४४. प्रश्न – जब श्रद्धा गुण की मिथ्यात्व पर्याय होती है, तब अन्य गुणों के मिथ्या पर्यायों में भी वह मिथ्यात्वपर्याय निमित्त होती है क्या ? उत्तर - हाँ, हाँ ! आपकी बात सही है, तथापि यहाँ प्रत्येक गुण का परिणमन अपने-अपने उपादान से होता है, इस विषय को भूलना नहीं चाहिए ।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy