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मोक्षमार्ग की पूर्णता
किसी भी पर्याय में कार्य-कारणरूप उपादान एवं निमित्त - दोनों ही कारण अवश्य होते हैं, इसका स्मरण रखना जरूरी है।
विवक्षित कार्य का उपादान तो मूलद्रव्य होता है, जो स्वयं परिणमन करता है और निमित्त तो उसे कहते हैं, जो करता तो कुछ नहीं; तथापि उसके ऊपर अनुकूलता का आरोप आता है।
निमित्त कार्य में अकिंचित्कर होता है, क्योंकि उपादान कार्य के लिए अनुरूप होता है और निमित्त अनुकूल होता है।
कथन निमित्त की मुख्यता से होता है; तथापि कार्य तो उपादानरूप कारण से ही होता है ।
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ज्ञानशक्ति बढ़ती जाती है, इस विषय को लेकर आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी का चिन्तन इसप्रकार है -
“शुद्धात्मा को उपादेय करके जैसे-जैसे स्वसन्मुखता वृद्धिंगत होती जाती है, वैसे-वैसे पर भाव छूटते जाते हैं और ज्ञानशक्ति बढ़ती जाती है; तथा शुद्धता बढ़ने पर गुणस्थान भी बढ़ता है। ज्ञानी का जैसा जैसा गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसी वैसी हेय ज्ञेय - उपादेय शक्ति भी बढती जाती है।
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४५. प्रश्न - ज्ञानी का जैसा जैसा गुणस्थान बढ़ता जाता है, वैसी-वैसी अशुद्धता छूटती जाती है और शुद्धता बढ़ती जाती है अर्थात् हेय और उपादेय शक्ति तो बढ़ती जाती है; परन्तु गुणस्थानानुसार ज्ञान भी बढ़ता है। यह किसप्रकार ?
प्रश्न का खुलासा- किसी को चतुर्थ गुणस्थान ही हो, तथापि अवधिज्ञान होता है; जबकि किसी को बारहवाँ गुणस्थान हो तो भी अवधिज्ञान न हो - ऐसी दशा में गुणस्थान बढ़ने पर ज्ञान शक्ति भी बढ़ती है - यह नियम तो नहीं रहा?