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________________ 60 - मोक्षमार्ग की पूर्णता ज्ञप्तिक्रियारूप भाव) वास्तव में संसारी को अनादि काल से मोहनीयकर्म के उदय का अनुसरण करती हुई परिणति के कारण अशुद्ध है, द्रव्यकर्मास्रव का हेतु है। परन्तु वह (क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप भाव) ज्ञानी को मोहरागद्वेषवाली परिणतिरूप से हानि को प्राप्त होता है; इसलिए उसे आस्रवभाव का निरोध होता है। इसलिए जिसे आम्रवभाव का निरोध हुआ है, ऐसे उस ज्ञानी को मोहक्षय द्वारा अत्यन्त निर्विकारपना होने से, जिसे अनादि काल से अनन्त चैतन्य और (अनंत) वीर्य मुंद गया है। - ऐसा वह ज्ञानी (क्षीणमोह गुणस्थान में) शुद्ध ज्ञप्तिक्रियारूप से अंतर्मुहूर्त व्यतीत करके युगपत् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का क्षय होने से कथंचित् कूटस्थ ज्ञान को प्राप्त करता है। ... इसप्रकार उसे ज्ञप्तिक्रिया के रूप में क्रमप्रवृत्ति का अभाव होने से भावकर्म का विनाश होता है। इसलिए कर्म का अभाव होने पर वह वास्तव में भगवान सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा इन्द्रियव्यापारातीत-अव्याबाधअनंतसुखवाला सदैव रहता है। . इसप्रकार यह (जो यहाँ कहा है), भावकर्ममोक्ष' का प्रकार तथा द्रव्यकर्ममोक्ष का हेतुभूत परम संवर का प्रकार है।" • अनेक बार चारों ज्ञान होने पर भी अर्थात् ज्ञान गुण के सम्यक् परिणमन का इतना विकास होने पर भी जीव को केवलज्ञान की उत्पत्ति के लिए यह विकास अनुपयोगी सिद्ध होता है। १. कूटस्थ = सर्व काल एकरूप रहनेवाला; अचल। (ज्ञानावरणादि घातिकर्मों का नाश होने पर ज्ञान कहीं सर्वथा अपरिणामी नहीं हो जाता; परन्तु वह अन्य-अन्य ज्ञेयों को जाननेरूप परिवर्तित नहीं होता-सर्वदा तीनों काल के समस्त ज्ञेयों को जानता रहता है, इसलिए उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।) २. भावकर्ममोक्ष = भावकर्म का सर्वथा छूट जाना, भावमोक्ष। ज्ञप्तिक्रिया में क्रमप्रवृत्ति का अभाव होना वह भावमोक्ष है अथवा सर्वज्ञ-सर्वदर्शीपने की और अनन्तानन्दमयपने की प्रगटता वह भावमोक्ष है। ३. प्रकार = स्वरूप। रीति। ४. पंचास्तिकाय संग्रह पृष्ठ-२१७ से २१९
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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