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________________ सम्यग्ज्ञान की पूर्णता ___59 उत्तर – यदि पूर्ण वीतरागता को कारण और केवलज्ञान को कार्य - ऐसा दोनों में कारण-कार्य सम्बन्ध मान लिया जाय तो बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में ही पूर्ण वीतरागता होती है, तदनुसार उसीसमय केवलज्ञान की उत्पत्ति भी होनी ही चाहिए; किन्तु ऐसा नियम से नहीं होता। . इसके विशेष स्पष्टीकरण के लिए पंचास्तिकाय गाथा १५० एवं १५१ को टीका सहित हम यहाँ दे रहे हैं - "हेदुमभावे णियमा जायदि णाणिस्स आसवणिरोधो। आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स दु णिरोधो॥ कम्मस्साभावेण य सव्वण्हू सव्वलोगदरिसी य। पावदि इंदियरहिदं अव्वाबाहं सुहमणंत।। टीका- यह, द्रव्यकर्ममोक्ष के हेतुभूत परम-संवररूप से भावमोक्ष के स्वरूप का कथन है। आस्रव का हेतु वास्तव में जीव का मोहरागद्वेषरूप भाव है। ज्ञानी को उसका अभाव होता है। उसका अभाव होने से आस्रवभाव का अभाव होता है। आस्रवभाव का अभाव होने से कर्म का अभाव होता है। ___ कर्म का अभाव होने से सर्वज्ञता, सर्वदर्शिता और अव्याबाध, इन्द्रियव्यापारातीत', अनन्त सुख होता है। सो यह जीवन्मुक्ति' नाम का भावमोक्ष है। 'किसप्रकार?' ऐसा प्रश्न किया जाए तो निम्नानुसार स्पष्टीकरण है :___ यहाँ जो 'भाव' विवक्षित है वह कर्मावृत (कर्म से आवृत हुए) चैतन्य की क्रमानुसार प्रवर्तती ज्ञप्तिक्रियारूप है। वह (क्रमानुसार प्रवर्तती १. द्रव्यकर्ममोक्ष = द्रव्यकर्म का सर्वथा छूट जाना; द्रव्यमोक्ष। (यहाँ भावमोक्ष का स्वरूप ___ द्रव्यमोक्ष के निमित्तभूत परम संवररूप से दर्शाया है।) २. इन्द्रियव्यापारातीत = इन्द्रियव्यापार रहित। ३. जीवन्मुक्ति = जीवित रहते हुए मुक्ति; देह होने पर भी मुक्ति। .. ४. विवक्षित = जिसका कथन करना है।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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