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________________ सम्यग्ज्ञान की पूर्णता तक भविष्य में विकास के लिए नियम से अवकाश ही नहीं हैआवश्यकता भी नहीं है। ___३७. प्रश्न : केवलज्ञानरूप स्वाभाविक शुद्ध पर्याय में भी षट्गुणहानि-वृद्धिरूप कार्य तो होता ही रहता है तो केवलज्ञानरूप पर्याय भी छोटी-बड़ी तो होती ही रहेगी, इसमें क्या आपत्ति है ? उत्तर : प्रत्येक अर्थपर्याय में षट्गुणहानिवृद्धिरूप कार्य तो नियम से होता ही रहता है, इसमें कुछ संदेह नहीं है। इस कारण केवलज्ञानरूप पर्याय छोटी-बड़ी होती होगी, ऐसा स्वीकारना आगम को सम्मत नहीं हो सकता। ___ जैसे दो पाव दूध गरम करते समय उस दूध में उफान तो आयेगा ही। उफनते समय दूध बढ़ गया, ऐसा भ्रम तो हो सकता है; लेकिन दूध बढता नहीं, दूध उतना का उतना ही रहता है। उसी प्रकार केवलज्ञानरूप अर्थपर्याय में अविभाग प्रतिच्छेद घटते-बढ़ते हैं, तथापि केवलज्ञान में हानि-वृद्धि नहीं होती। यह तो स्थूल दृष्टान्त है। वास्तविक स्वरूप केवलज्ञानगम्य है। ___ इसीप्रकार मोक्षावस्था के प्रथम समय में चारित्र गुण के सम्यक् एवं पूर्ण परिणमन के बाद अनन्त काल पर्यंत वह यथावत् सम्यक् एवं पूर्ण ही रहता है। ३८. प्रश्न - केवलज्ञानरूप परिणमन के पहले होनेवाले ज्ञान गुण के विकास का क्या स्वरूप है ? उत्तर-हमने तो पहले ही यह जान लिया है कि श्रद्धा गुण का सम्यक् परिणमन एवं उसकी पूर्णता एकसाथ ही होती है, उसमें क्रम नहीं है। - तथा ज्ञान गुण के सम्यक् परिणमन के बाद उसकी पूर्णता के पहले ज्ञान के विकास का स्वरूप कुछ अलग ही है। इसमें नियमरूप कुछ नहीं है। • यदि किसी नारकी अथवा देव को सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है तो उनको सम्यग्दर्शन के साथ ही तीनों (कुमति, कुश्रुत, कुअवधि) ज्ञान नियम से सम्यक् ही हो जाते हैं।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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