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________________ सम्यक्त्व की पूर्णता उपशान्त-कषाय- वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ।। १४७ ।। ' इसी विषय को और भी अधिक स्पष्ट समझने-समझाने का प्रयास करते हैं - २५. प्रश्न : औपशमिक सम्यक्त्व तो मात्र अन्तर्मुहूर्त काल रहकर नियम से छूट ही जाता है तो उस औपशमिक सम्यक्त्व को अपूर्ण ही कहना चाहिए। आप उसे भी पूर्ण कहते हो, यह समझ में नहीं आता, इसलिए कृपया इसे स्पष्ट करें ? उत्तर : आप को शंका होना स्वाभाविक है । समाधान के लिए हमें आगम ही शरण / आधार है और युक्ति का अवलंबन भी आवश्यक है। औपशमिक सम्यक्त्व एक अंतर्मुहूर्त ही रहता है, इसलिए उसे अपूर्ण कहने की अपेक्षा नहीं है। यहाँ काल की कुछ अपेक्षा नहीं है । सम्यक्त्व को यहाँ भाव की अपेक्षा से ही पूर्ण कहा है। श्रद्धा गुण का जो सम्यक्त्वरूप ( सम्यग्दर्शन) परिणमन होता है (भले वह औपशमिकादि तीनों में से कोई भी हो ) उसके निमित्त से कर्मों की ४१ प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति (नये कर्मों के बन्ध का अभाव) होती है, वह तीनों सम्यक्त्व में समानरूप से ही होता है। इस कारण से भी तीनों सम्यक्त्व में समानता रहती है। 39 (२) तत्त्वार्थों का यथार्थ स्वीकार, सच्ची प्रतीति, सत्य अभिप्राय, सत्य का विश्वास, तत्त्वों की रुचि को ही सम्यक्त्व कहते हैं । यह कार्य तीनों सम्यक्त्व में बराबर रहता है । अत: औपशमिक सम्यक्त्व भी पूर्ण ही है। (३) औपशमिक सम्यग्दर्शन का धारक जीव संयमासंयमी होता है, संयमी भी बन जाता है, इतना ही नहीं द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मुनिराज को ग्याहरवें गुणस्थान की प्राप्ति भी होती है ! उसे शुद्धोपयोग भी होता ही १. धवला पुस्तक - १, पृष्ठ ३९७ से ४००
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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