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मोक्षमार्ग की पूर्णता आदि अन्य किसी भी आभूषणरूप परिवर्तित होती रहती है; वैसे ही प्रत्येक द्रव्य अपनी धारा के भीतर परिवर्तन करता रहता है।
यहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि द्रव्य अलग रहता है और उसकी पर्याय अलग रहती है; अपितु प्रत्येक द्रव्य कास्वरूपही ऐसा है कि द्रव्य स्वयं अपने स्वभाव का त्याग किये बिनाप्रति समय भिन्न-भिन्न अवस्था को प्राप्त होता है। जीव ज्ञानस्वभावी है, वह अपने ज्ञानस्वभाव का त्याग किए बिना अन्य-अन्य गति आदि में परिभ्रमण करता है।
पर्याय की परिभाषा अत्यन्त सुलभ शब्दों में गुरु गोपालदासजी बरैया ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका में इसप्रकार समझाई है -
“गुणों के कार्य अर्थात् परिणमन को पर्याय कहते हैं।"
९. प्रश्न - जैसे द्रव्य के छह भेद हैं, वैसे पर्याय के भी भेद होंगे, वे कौन-कौन से हैं? स्पष्ट करें।
उत्तर - हाँ ! पर्याय के भी अनेक भेद हैं। उनकी अलग-अलग अपेक्षाएँ है। अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय - इन दोनों को क्रमशः गुणपर्याय और द्रव्यपर्याय भी कहते हैं।
इसके अतिरिक्त स्वभावपर्याय और विभावपर्याय ऐसे दो भेद भी हैं। प्रकरणवश यहाँ स्वभावपर्याय और विभावपर्याय की मुख्यता है, अतः उनकी ही चर्चा करते हैं। इनमें भी हमें जीवद्रव्य की पर्यायों की ही मुख्यता है, इसलिए जीव को लेकर ही यहाँ विचार करते हैं।
. स्वभावपर्याय - जीव की जिस पर्याय में कर्म का उदय आदि निमित्त न हो, उसे (परनिरपेक्ष) स्वभावपर्याय कहते हैं।
विभावपर्याय - जीव की जिस पर्याय में कर्म का उदय आदि निमित्त हो, उसे (परसापेक्ष) विभावपर्याय कहते हैं।
श्रद्धादि गुणों का कार्य बताते हैं -
श्रद्धा - श्रद्धा किसी-न-किसी एक में अहंपना करती है। एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि एवं भोक्तृत्वबुद्धिरूप कार्य भी श्रद्धा का ही है। (यहाँ बुद्धि का अर्थ मान्यता लेना है।)