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पर्याय का स्वरूप
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गुणों में जो परिणमन हो रहा है, वह अपने-अपने कारण से स्वतंत्ररूप से एवं स्वाधीनता से हो रहा है। . __ इसप्रकार जीव द्रव्य में जिस तरह ज्ञानादि अनंतगुण अपने स्वभाव से स्वतंत्ररूप से रहते हुए भी भिन्न-भिन्नरूप से ही परिणमते हैं। उसीप्रकार पुद्गल द्रव्य में भी यह कार्य निरन्तर होता ही रहता है। धर्मादि अरूपी द्रव्यों में भी ये सब कार्य इसीप्रकार होते ही रहते हैं। पर्याय का स्वरूप
वास्तव में द्रव्य एवं गुण का ज्ञान करने के लिए पर्याय ही एक मात्र साधन है। द्रव्य और गुण दोनों - अपना परिचय कराने में असमर्थ हैं; क्योंकि वे शक्ति के रूप से सदा एकरूप बने रहते हैं। अतः द्रव्य एवं गुणों का परिचय पर्याय से ही होता है। ___ इतना ही नहीं पर्याय का परिचय भी पर्याय से ही प्राप्त होता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि द्रव्य, गुण एवं पर्याय - इन तीनों का परिचय पर्याय द्वारा ही होता है। ____ यदि दुनियाँ में पर्याय नामक पदार्थ/अर्थ नहीं होता तो द्रव्य, गुण व पर्याय का परिचय ही नहीं होता; क्योंकि पर्याय ही मुखर/प्रगट/ व्यक्त है। द्रव्य और गुण तो सतत मौन/अप्रगट/अव्यक्त ही अर्थात् शक्तिरूप से ही रहते हैं।
पर्याय का लक्षण देते हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र (अध्याय-५, सूत्र-४२) में कहा है - 'तद्भावः परिणामः।' उसका होना अर्थात् द्रव्य का प्रति समय बदलते रहना परिणाम/पर्याय है। परिणाम, पर्याय का ही दूसरा नाम है।
जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, उसी द्रव्य के भीतर उसी के स्वभाव में स्वभाव के अनुरूप ही जो बदल/परिवर्तन होता है, उसे पर्याय कहते हैं।
जैसे सुवर्ण धातु, हार से अंगुठी और अंगुठी से कड़ा, कुंडल