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________________ - 206 मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यक्चारित्र * चारित्र मोक्षमार्ग का एक प्रधान अंग है। * अभिप्राय के सम्यक् व मिथ्या होने से वह सम्यक् व मिथ्या हो जाता है। निश्चय, व्यवहार, सराग, वीतराग, स्व, पर आदि भेदों से वह अनेक प्रकार से निर्दिष्ट किया जाता है। वास्तव में वे सब भेद-प्रभेद किसी न किसी एक वीतरागता रूप निश्चय चारित्र के पेट में समा जाते हैं। * ज्ञाता-दृष्टा, मात्र साक्षीभाव या साम्यता का नाम वीतरागता है। प्रत्येक चारित्र में वीतरागता का अंश अवश्य होता है। * वीतरागता का सर्वथा लोप होने पर केवल बाह्य वस्तुओं का त्याग आदि चारित्र संज्ञा को प्राप्त नहीं होता। . * इसका यह अर्थ भी नहीं कि बाह्य व्रत त्याग आदि बिल्कुल निरर्थक है, वह उस वीतरागता के अविनाभावी हैं तथा पूर्व भूमिका वालों को उसके साधक भी। (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-२, पृष्ठ-२८०) चारित्र यद्यपि एक प्रकार का है; परन्तु उसमें जीव के अन्तरंग भाव व बाह्य-त्याग दोनों बातें युगपत उपलब्ध होने के कारण, अथवा पूर्व भूमिका और ऊँची भूमिकाओं में विकल्प व निर्विकल्पता की प्रधानता रहने के कारण, उसका निरूपण दो प्रकार से किया जाता है - निश्चय चारित्र व व्यवहारचारित्र। * तहाँ जीव की अन्तरंग विरागता या साम्यता तो निश्चय चारित्र और उसका बाह्य वस्तुओं का ध्यानरूप व्रत, बाह्य क्रियाओं में यत्नाचार रूप समिति और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को नियंत्रित करने रूप गुप्ति ये व्यवहार चारित्र हैं। व्यवहार चारित्र का नाम सराग चारित्र भी है। और निश्चय चारित्र का नाम वीतराग चारित्र।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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