________________
मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यक्चारित्र
३३. ज्ञानी जीव के जो संसार के कारणों को नष्ट करने के लिए बाह्य और अन्तरंग क्रियाओं का निरोध होता है, वह उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है। ( द्रव्यसंग्रह, गाथा- ४६, पृष्ठ- २२३) ३४. समस्त संकल्प विकल्पों के त्याग द्वारा, उसी ( वीतराग) सुख में सन्तुष्ट, तृप्त तथा एकाकार परम समता भाव से द्रवीभूत चित्त का पुनः पुनः स्थिर करना सम्यक्चारित्र है।
204
( द्रव्यसंग्रह, गाथा- ४०, पृष्ठ- १८६ ) ३५. जो अशुभ कार्य से निवृत्त होना और शुभकार्य में प्रवृत्त होना है, उसको चारित्र जानना चाहिए, व्यवहारनय से उसको व्रत, समिति, गुप्त स्वरूप कहा है। ( द्रव्यसंग्रह, गाथा- ४५, पृष्ठ- २२० ) ३६. उस शुद्धात्मा में रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुख के आस्वादन से निश्चल चित्त होना, वीतराग चारित्र है । उसमें जो आचरण करना, सो निश्चय चारित्राचार है।
( द्रव्यसंग्रह, गाथा - २२, पृष्ठ-७६) ३७. योगियों का प्रमाद से होनेवाले कर्मास्रव से रहित होने का नाम चारित्र है । (पुरानन्दि पंचविंशतिका अधिकार- १, गाथा- ७२, पृष्ठ-३१) ३८. इष्ट अनिष्ट पदार्थों में समता भाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं। वह सम्यम्चारित्र यथार्थ रूप से तृषा रहित, मोक्ष की इच्छा करनेवाले, वस्त्ररहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करनेवाले मुनिराज के ही होता है। ( महापुराण - २४, श्लोक - ११९) ३९. समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग, वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव
की आराधना ये सब एकार्थवाची है।
(बृहद् नयचक्र, गाथा - ३५६, पृष्ठ- १८० ) ४०. श्रमण जो मूल व उत्तर गुणों को धारण करता है तथा पंचाचारों