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सम्यक्वारित्र की परिभाषाएँ
203 देशघाति प्रकृति के उदय होने पर और नव नोकषायों का यथा सम्भव उदय होने पर जो त्यागरूप परिणाम होता है, वह क्षायोपशमिक चारित्र है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय-२, सूत्र-५, पृष्ठ-११३) २६. जो आचरण करता है, अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है।
(राजवार्तिक अध्याय-१, सूत्र-१, पृष्ठ-४) २७. जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है,
उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को
सम्यक्चारित्र कहते हैं। (राजवार्तिक अध्याय-१, सूत्र-१, पृष्ठ-६) २८. सरागी जीव का संयम सराग है।
(राजवार्तिक अध्याय-६, सूत्र-१२, पृष्ठ-५२२) २९. अनन्तानुबन्धी आदि १६ कषाय और हास्य आदि नव नोकषाय,
इस प्रकार २५ तो चारित्रमोह की और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व : व सम्यक्प्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीय की - ऐसे मोहनीय की - कुल २८ प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक चारित्र होता है।
(राजवार्तिक अध्याय-२, सूत्र-३, पृष्ठ-१०४) ३०. पूर्वोक्त (देखो ऊपर औपशमिक चारित्र का लक्षण) दर्शन मोह
की तीन और चारित्रमोह की २५; इन २८ प्रकृतियों के निरवशेष विनाश से क्षायिक चारित्र होता है।
(राजवार्तिक अध्याय-२, सूत्र-४, पृष्ठ-१०६) ३१. सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात - ऐसे चारित्र पाँच प्रकार का है।
_ (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय-९, सूत्र-१८, पृष्ठ-१९३) ३२. तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना, चरण कहलाता है। अर्थात् मन, वचन, काय से शुभ कर्मों में प्रवृत्ति करना, चरण है।
(पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध गाथा-४१२ पृष्ठ-३८२)