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________________ मोक्षमार्ग की पूर्णता : सम्यक्चारित्र १६. स्वरूप में चरण करना चारित्र है, स्वसमय में प्रवृत्ति करना इसका . • अर्थ हैं। यही वस्तु का (आत्मा का) स्वभाव होने से धर्म है । (प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका टीका, गाथा-७, पृष्ठ- ११ ) १७. जीव-स्वभाव में अवस्थित रहना ही चारित्र है; क्योंकि, में चरण करने को चारित्र कहा है । स्वरूप 202 (पंचास्तिकाय, गाथा - १५४, पृष्ठ- १८९ ) १८. जो (आत्मा) अनन्यमय आत्मा को आत्मा से आचरता है, वह आत्मा ही चारित्र है। (पंचास्तिकाय गाथा - १६२, पृष्ठ- २०३ ) १९. रागादि दोषों से रहित शुभध्यान में लीन आत्मस्वरूप वस्तु को उत्कृष्ट चारित्र जानों। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा - १९) २०. जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं । (भगवती आराधना, गाथा - २०, पृष्ठ- १९१) २१. सज्जन जिसका आचरण करते हैं, उसको चारित्र कहते हैं, जिसके सामायिकादि भेद हैं। (भगवती आराधना, गाथा - २०, पृष्ठ- ११) २२. यह करने योग्य कार्य है, ऐसा ज्ञान होने के अनन्तर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र है । (भगवती आराधना, गाथा- ४५, पृष्ठ- ५७ ) २३. अविरति, प्रमाद, कषायों का त्याग स्वाध्याय करने से तथा ध्यान करने से होता है, इस वास्ते वे भी चारित्ररूप हैं। ( भगवती आराधना - १, गाथा - ६, पृष्ठ-४) २४. जो संसार के कारणों के त्याग के प्रति उत्सुक है, परन्तु जिसके मन से राग के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं, वह सराग कहलाता है। प्राणी और इन्द्रियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते हैं । (सर्वार्थसिद्धि अध्याय - ६, सूत्र - १२, पृष्ठ- २५४) २५. अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानावरण इन बारह कषायों के उदयाभावी क्षय होने से और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा चार संज्वलन कषायों में से किसी एक
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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