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________________ सम्यक्वारित्र की परिभाषाएँ 201 ९. आत्माधीन ज्ञान व सुखस्वभावरूप शुद्धात्म द्रव्य में निश्चल निर्विकार अनुभूतिरूप जो अवस्थान है, वही निश्चय चारित्र का लक्षण है। (समयसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-३८, पृष्ठ-४८) १०. जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है, वह आत्मा वास्तव में चारित्र है। (समयसार, गाथा-३८६, पृष्ठ-५८२) ११. निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र है। (नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-५५, पृष्ठ-१०९) १२. स्वरूप में विश्रान्ति, सो ही परम वीतराग चारित्र है। (नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-१५२, पृष्ठ-३०६) १३. ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियान्तर से अर्थात् अन्य पदार्थों के जाननेरूप क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्व में (ज्ञाता-दृष्टा भाव में) परिणति जिसका लक्षण है, वह चारित्र पर्याय है। ___(प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका, टीका-, पृष्ठ-२४२) १४. शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहरूप पदार्थों का त्याग करना उत्सर्ग मार्ग है। उसे ही निश्चयनय या निश्चयचारित्र व शुद्धोपयोग भी कहते हैं, इन सब शब्दों का एकही अर्थ है। (प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-२३०, पृष्ठ-३२२) १५. वीतराग चारित्र में असमर्थ पुरुष शुद्धात्म भावना के सहकारीभूत जो कुछ प्रासुक आहार तथा ज्ञानादि के उपकरणों का ग्रहण करता है, वह अपवाद मार्ग-व्यवहारनय या व्यवहार चारित्र, एकदेश परित्याग, अपहृत संयम, सराग चारित्र या शुभोपयोग कहलाता है। ये सब शब्द एकार्थवाची है। (प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा-२३०, पृष्ठ-३१५)
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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