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सम्यक्चारित्र
सम्यक् चारित्र की विभिन्न परिभाषाएँ
१. पुण्य व पाप दोनों का त्याग करना चारित्र है ।
(मोक्षपाहुड़, गाथा - ३७, पृष्ठ- २९४)
२. चारित्र वास्तव में धर्म है। जो धर्म है वह साम्य है, ऐसा कहा है। साम्य, मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम है।
(मोक्षपाहुड़, गाथा - ५०, पृष्ठ- ३०३) ३. अपनी आत्मा को जानकर व उसका श्रद्धान करके जो परभाव को छोड़ता है, वह निजात्मा का शुद्धभाव, चारित्र होता है । (मोक्षपाहुड़, गाथा-३७)
४. चारित्र वास्तव में धर्म है।
(मोक्षपाहुड़, गाथा - ५०, पृष्ठ- ३०३)
५. जो जानै सो ज्ञान है, बहुरि जो देखे सो दर्शन है, ऐसा कहा है। बहुरि ज्ञान और दर्शन के समायोग तैं चारित्र होय है।
( चारित्रपाहुड, गाथा - ३, पृष्ठ-७०) ६. पहला तो, जिनदेव के ज्ञानदर्शन व श्रद्धाकरि शुद्ध ऐसा सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और दूसरा संयमाचरण चारित्र है।
( चारित्रपाहुड़, गाथा - ५, पृष्ठ-७१) ७. अपने मैं अर्थात ज्ञानस्वभाव में ही निरन्तर चरने से चारित्र है। (समयसार आत्मख्याति टीका. गाथा- ३८६, पृष्ठ-५८३)
१८. रागादिक का परिहार करना चारित्र है ।
(समयसार आत्मख्याति, गाथा - १५५, पृष्ठ- २५७)