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सम्यग्ज्ञान की महिमा
३१. तप करो, संयम पालो, सकल शास्त्रों को पढ़ो; परन्तु जबतक आत्मा को नहीं ध्याता तबतक मोक्ष नहीं होता ।
( आराधनासार, श्लोक - १११, पृष्ठ- २२३ ) ३२. विद्वान पुरुषों ने आत्मध्यान में प्रेम होना विद्वत्ता का उत्कृष्ट फल बतलाया है और आत्मध्यान में प्रेम न होकर केवल अनेक शास्त्रों को पढ़ लेना संसार कहा है। ( योगसार - प्राभृत, अधिकार - ७, श्लोक - ३४५) ३३. जो ज्ञानस्वरूप आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता, वह आगम का पठन-पाठन करते हुए भी शास्त्र को नहीं जानता । (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा- ४६६, पृष्ठ- २१९ ) ३४. अन्यत्र ग्रन्थ में कहा भी है कि द्रव्य श्रुत के अभ्यास से भाव होते हैं, उससे बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकार का संवेदन होता है, उससे शुद्धात्मा की संवित्ति होती है और उससे केवलज्ञान होता है। (वृहद्नयचक्र, गाथा - २९७, पृष्ठ- १४६ ) ३५. उस विकल्परूप व्यवहार ज्ञान के द्वारा साध्य निश्चय ज्ञान का कथन करते हैं। निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान को ही निश्चयज्ञान कहते हैं। (द्रव्यसंग्रह, गाथा- ४२, पृष्ठ- १८६ ) ३६. मुक्ति की अभिलाषा करनेवाले को मात्र ज्ञान भावना का चिन्तवन करना चाहिए कि जिससे अविनश्वर ज्ञान की प्राप्ति होती है। परन्तु अज्ञानी प्राणी ज्ञानभावना का फल ऋद्धि आदि की प्राप्ति समझते हैं. सो उनके प्रबल मोह की महिमा है।
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( आत्मानुशासन, श्लोक - १७४, पृष्ठ- १६९ ) ३७. इस शास्त्र का प्रयोजन व्यवहार से षट् द्रव्य आदि का परिज्ञान है और निश्चय से निज निरंजनशुद्धात्मसंवित्ति से उत्पन्न परमानन्दरूप एक लक्षणवाले सुखामृत के रसास्वादरूप स्वसंवेदन ज्ञान है। (द्रव्यसंग्रह, गाथा-१, पृष्ठ-८ )