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________________ सम्यग्ज्ञान की महिमा 193 १७. बहिरंग परमागम के अभ्यास से अभ्यन्तर स्वसंवेदन ज्ञान का होना सम्यग्ज्ञान है । ( प्रवचनसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा - २६३, पृष्ठ-३५४ ) १८. यहाँ यह भावार्थ है कि व्यवहारनय से तो तत्व का विचार करते समय सविकल्प अवस्था में ज्ञान का लक्षण स्वपरपरिच्छेदक कहा जाता है। और निश्चयनय से वीतराग निर्विकल्प समाधि के समय यद्यपि अनिहित वृत्ति से उपयोग में बाह्य पदार्थों का निराकरण किया जाता है। फिर भी यहाँ पूर्व विकल्पों का अभाव होने से उसे गौण करके स्वसंवेदन ज्ञान को ही ज्ञान कहते हैं। (परमात्मप्रकाश टीका अध्याय - २, गाथा - २९ ) १९. मात्र आचारांगादि शब्द श्रुत ही (एकान्त से) ज्ञान का आश्रय नहीं है; क्योंकि उसके श्रद्धान में भी अभव्यों को शुद्धात्मा के अभाव के कारण ज्ञान का अभाव है। (समयसार आत्मख्याति, गाथा - २७७, पृष्ठ-४४० ) २०. आत्मा के दो भेद हैं - एक स्वसमय और दूसरा परसमय। जो जीव इन दोनों को द्रव्य, गुण व पर्याय से जानता है, वह ही वास्तव में आत्मा को जानता है। वह जीव ही शिवपथ का नायक होता है। ( रयणसार, गाथा - १४४, पृष्ठ- १३९ ) २१. ज्ञानप्रकाश ही उत्कृष्ट प्रकाश है, क्योंकि किसी के द्वारा भी इसका प्रतिघात नहीं हो सकता। सूर्य का प्रकाश यद्यपि उत्कृष्ट समझा जाता है; परन्तु वह भी अल्पमात्र क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है। ज्ञान प्रकाश समस्त जगत् को प्रकाशित करता है। (भगवती आराधना, गाथा- ७६८) २२. 'ज्ञान' अनुष्ठान का स्थान है, मोहान्धकार का विनाश करनेवाला है, पुरुषार्थ का करनेवाला है, और मोक्ष का कारण है। ( योगसार प्राभृत, अधिकार- ९, श्लोक-४८८) २३. ज्ञान, संसार और मुक्ति-दोनों के कारणों को प्रकाशित करता है।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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