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________________ सम्यक्त्व के विभिन्न लक्षणों का समन्वय को सम्यक्त्व कहा है। इसी से इसका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है। • अथवा जिसके तत्त्वार्थश्रद्धान हो, उसके सच्चे अरहन्तादिक के स्वरूप का श्रद्धान होता ही होता है । तत्त्वार्थश्रद्धान बिना पक्ष से अरहंतादि का श्रद्धान करे; परन्तु यथावत् स्वरूप की पहिचान सहित श्रद्धान नहीं होता। तथा जिसके सच्चे अरहन्तादिक का स्वरूप पहिचानने से जीव - अजीव - आस्रवादिक की पहिचान होती है। इसप्रकार इनको परस्पर अविनाभावी जानकर कहीं अरहन्तादिक के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है। 181 १०. यहाँ प्रश्न है कि नारकादि जीवों के देव - कुदेवादि का व्यवहार नहीं है और उनके सम्यक्त्व पाया जाता है; इसलिये सम्यक्त्व होने पर अरहन्तादिक का श्रद्धान होता ही होता है, ऐसा नियम सम्भव नहीं है ? समाधान – सप्त तत्त्वों के श्रद्धान में अरहन्तादिक का श्रद्धान गर्भित है; क्योंकि तत्त्वश्रद्धान में मोक्ष तत्त्व को सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, वह मोक्ष तत्त्व तो अरहन्त-सिद्ध का लक्षण है। जो लक्षण को उत्कृष्ट माने वह उसके लक्ष्य को उत्कृष्ट माने ही माने; इसलिये उनको भी सर्वोत्कृष्ट माना, और को नहीं माना; वहीं देव का श्रद्धान हुआ । तथा मोक्ष के कारण संवर- निर्जरा हैं, इसलिये इनको भी उत्कृष्ट मानता है; और संवर- निर्जरा के धारक मुख्यतः मुनि हैं, इसलिये मुनि को उत्तम माना, और को नहीं माना; वही गुरु का श्रद्धान हुआ । तथा रागादिक रहित भाव का नाम अहिंसा है, उसी को उपादेय मानते हैं, और को नहीं मानते; वही धर्म का श्रद्धान हुआ । इस प्रकार तत्त्व श्रद्धान में गर्भित अरहन्तदेवादिक का श्रद्धान होता है । अथवा जिस निमित्त से इसके तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, उस निमित्त से अरहन्तदेवादिक का भी श्रद्धान होता है। इसलिये सम्यक्त्व में देवादिक के श्रद्धान का नियम है।
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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