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________________ श्रीकानजी स्वामी के उद्गार 155 उत्तर - शुद्धात्मस्वभाव की श्रद्धा करना भी परमात्मस्वभाव का ही ध्यान है। सम्यग्दर्शन भी स्वरूप की ही एकाग्रता है और सम्यग्ज्ञान भी ध्यान ही है तथा सम्यक्चारित्र भी ध्यान है। यह तीनों स्वाश्रय की एकाग्रतारूप ध्यान के ही प्रकार हैं और ध्यान से ही प्रगट होते हैं। राग की एकाग्रता छोड़कर स्वरूप की एकाग्रता करना ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। अकेले ज्ञानस्वभाव में एकाग्रता करते ही रागादि की चिन्ता छूट जाती है, वही एकाग्रता चिन्ता-निरोधरूप ध्यान है और वही मोक्षमार्ग भी है। (वीतराग-विज्ञान : जून १९८४, पृष्ठ-२४) २१. प्रश्न - ध्यान पर्याय को कथंचित् भिन्न क्यों कहा है? उत्तर-समयसार गाथा ३२० में जयसेनाचार्य ने ध्यान को कथंचित् भिन्न कहा है। उसका अर्थ 'पर' की अपेक्षा से ध्यान पर्याय वह स्वयं की है, इसीलिए अभिन्न है और शाश्वत ध्रुव द्रव्य की अपेक्षा ये ध्यान पर्याय विनाशीक होने से भिन्न है। वास्तव में द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्न है। ... (आत्मधर्म : जुलाई १९७६, पृष्ठ-२३) २२. प्रश्न - पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत - ऐसे धर्मध्यान के चार प्रकार हैं, उनमें कितने सविकल्प हैं और कितने निर्विकल्प हैं ? ___उत्तर - परमार्थ से तो चारों ही प्रकार के धर्मध्यान निर्विकल्प हैं, क्योंकि जब विकल्प छूटकर उपयोग स्व में स्थिर हो तभी वास्तविक धर्मध्यान कहा जाये। प्रथम पिण्डस्थ अर्थात् देह में स्थित शुद्ध आत्मा, पदस्थ अर्थात् शब्द के वाच्यरूप शुद्ध आत्मा, रूपस्थ अर्थात् अरहन्त सर्वज्ञदेव तथा रूपातीत अर्थात् देहातीत सिद्धपरमात्मा - इन चार प्रकार के स्वरूप का अनेक विधि चिन्तवन - अन्य स्थूल विकल्पों में से छूटकर, मन के
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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