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________________ 153 - श्रीकानजी स्वामी के उद्गार उत्तर - इसमें ही यथार्थ ग्रहण - त्याग की बात आ जाती है। ग्रहण या त्याग किसी बाह्यवस्तु का तो हो नहीं सकता, वह तो अन्तर में ही होता है। बाह्यवस्तु को ग्रहण-त्याग कर सकने की मान्यता तो अधर्म है। भले ही ऐसी मान्यतावाला जीव हरितकाय का त्यागी हो और भगवान के नाम का जप करता हो, तथापि वह अधर्मी है। मैं पर वस्तु का ग्रहण-त्याग कर सकता हूँ अथवा राग व मंद कषाय से मुझे धर्म होगा- ऐसी विपरीत मान्यता का त्याग और जड़ एवं विकार से भिन्न अन्तर में अपना स्वभाव पूर्ण ज्ञायकमूर्ति है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान-स्थिरता का ग्रहण ही धर्म है। श्रद्धा में पूर्णस्वभाव का ग्रहण और अपूर्णता का त्याग धर्म है। __ (वीतराग-विज्ञान : जनवरी १९८४, पृष्ठ-२४-२५) १६. प्रश्न - क्या त्याग धर्म नहीं है? उत्तर - सम्यग्दर्शनपूर्वक जितने अंश में वीतरागभाव प्रगट हुआ, उतने अंश में कषाय का त्याग हुआ। सम्यग्दर्शनादि अस्तिरूप धर्म है और मिथ्यात्व व कषाय का त्याग नास्तिरूप धर्म है। सम्यग्दर्शन रहित त्याग धर्म नहीं है, यदि मन्दकषाय हो तो पुण्यबन्ध है। __ (वीतराग-विज्ञान : जून १९८४, पृष्ठ-२८) १७. प्रश्न - धर्म और अधर्म का आधार किस पर है? उत्तर- एक तरफ संयोग और दूसरी तरफ स्वभाव - दोनों एक ही समय हैं। वहाँ दृष्टि किस पर पड़ी है - इस पर धर्म-अधर्म का आधार है। ___ संयोग पर दृष्टि है तो अधर्म होता है और स्वभाव पर दृष्टि है तो धर्म होता है। . (वीतराग-विज्ञान : जनवरी १९८४, पृट-२८) १८. प्रश्न - धर्म का आचरण क्या है ?
SR No.007126
Book TitleMokshmarg Ki Purnata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Smarak Trust
Publication Year2007
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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