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श्रीकानजी स्वामी के उद्गार
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उत्तर - धवला भाग-१ और १२ में आता है कि मुनि पंच महाव्रत को ‘भुक्ति' अर्थात् भोगते हैं; परन्तु पंच महाव्रत को करते हैं अथवा पालते हैं - ऐसा नहीं कहा।
जैसे जगत के जीव अशुभराग को भोगते हैं, वैसे ही मुनि भी शुभराग को भोगते हैं।
समयसार आदि अध्यात्मशास्त्रों में तो ऐसा लेख आता ही है; परन्तु व्यवहार के ग्रंथ धवला में भी मुनि पंच महाव्रत के शुभराग को भोगते हैं - ऐसा कहा है।
कम्बल या गलीचा आदि पर छपा हुआ सिंह किसी को मार नहीं सकता। वह तो कथन मात्र ही सिंह है। उसीप्रकार अन्तर्जल्प-बाह्यजल्प बाह्य क्रियारूप चारित्र है, वह कथनमात्र चारित्र है। सच्चा चारित्र नहीं है; कारण कि वह आत्मद्रव्य के स्वभावरूप नहीं है। पुद्गल द्रव्य के स्वभावरूप होने से वह कर्म के उदय का कार्य है।
भले ही अशुभ से बचने के लिये शुभ होता है; परन्तु है तो वह बंध का ही कारण, मोक्ष का कारण तो है नहीं।
(आत्मधर्म : जून १९७८, पृष्ठ-२६) १२. प्रश्न - अभेदस्वरूप आत्मा की अनुभूति हो जाने के पश्चात् व्रतादि करने से क्या लाभ? .
उत्तर - शुद्धात्मा का अनुभव होने के बाद पंचम-षष्ठम गुणस्थानों में उस-उसप्रकार का राग भूमिकानुसार आये बिना रहता नहीं। वह शुभ राग बंध का ही कारण है और हेय है - ऐसा ज्ञानी जानता है। ___ शुद्धता की वृद्धि अनुसार कषाय घटती जाती होने के कारण व्रतादि का शुभराग आये बिना रहता ही नहीं - ऐसा ही स्वभाव है।
(आत्मधर्म : अगस्त १९७८, पृष्ठ-२६)