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मोक्षमार्ग की पूर्णताः सम्यक्चारित्र सच्चा त्याग तो सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है, मिथ्यादृष्टि को तो किसका त्याग करें और किसका ग्रहण करें - इसका भान ही नहीं है; अत: उसका त्याग सच्चा नहीं होता। (आत्मधर्म : जून १९८२, पृष्ठ-२४)
८. प्रश्न - पदार्थ के स्वरूप का निर्णय करनेवाला जीव कैसा होता है ?
उत्तर - वह जीव अपने आत्मा को कृत निश्चय, निष्क्रिय तथा निर्भोग देखता है। उसे स्व-पर के स्वरूप संबंधी संदेह दूर हो गया है। परद्रव्य की किसी भी क्रिया को वह आत्मा की नहीं मानता तथा अपने आत्मा को परद्रव्य में प्रवृत्तिरूप क्रिया से रहित-निष्क्रिय देखता है; परद्रव्य के उपभोग रहित निर्भोग देखता है। ऐसे अपने स्वरूप को देखता हुआ वह जीव संदेह तथा व्यग्रता रहित होता हुआ, निजस्वरूप में एकाग्र होता है। निजस्वरूप की धुन का धुनी होकर उसमें स्थिर होता है। इसप्रकार वस्तुस्वरूप का निर्णय करनेवाले को ही चारित्र होता है। .
(आत्मधर्म : अक्टूबर १९७६, पृष्ठ-२४) ९. प्रश्न-मोक्षमार्ग की साधक मुनिदशा किसे होती है?
उत्तर- उपरोक्तानुसार वस्तुस्वरूप का निर्णय करके उसमें जो एकाग्र होता है, उसी को श्रामण्य होता है। (आत्मधर्म : अक्टूबर १९७६, पृष्ठ-२४)
१०. प्रश्न - श्रामण्य का दूसरा नाम क्या है ?
उत्तर - श्रामण्य का दूसरा नाम मोक्षमार्ग है। जहाँ मोक्षमार्ग है, वहीं श्रामण्य है। जिसे मोक्षमार्ग नहीं है, उसे श्रामण्य भी नहीं है।
(आत्मधर्म : अक्टूबर १९७६, पृष्ठ-२४) ११. प्रश्न - मुनिराज तो महाव्रतादि पालते हैं, उन्हें आस्रवभाव क्यों कहा ? वे तो चारित्र हैं ?